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________________ प्राकृत साहित्य में वर्णित शील-सुरक्षा के उपाय : डॉ० हुकमचन्द जैन इमस्स पुण ओरालिय सरीरस्स खेलासवस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कसोणियपूयासवस्स दुरूवऊसासनीसासस्स दुरूवमुत्तपूतियपुरिस्सपुण्णस्स सडण जाव धम्मस्स ।। ___ अर्थात् यह एक औदारिक शरीर है, कफ को फराने वाला है, खराब उच्छ्वास एवं निश्वास को निकालने वाला है, मूत्र एवं दुर्गन्धित मल से परिपूर्ण है, सड़ना उसका स्वभाव है । अतः हे देवानुप्रियो ! आप ऐसे काम-भोगों से राग मत करो। इस उद्बोधन से राजकुमारों को वैराग्य हो गया । अशुचि पदार्थों के दृष्टान्त उद्बोधन देकर शीलरक्षा की कथा प्राकृत के स्वतन्त्र कथा-ग्रन्थों में भी मिलती है। (ख) आचार्य नेमिचन्द्र सूरि कृत रयणचूडरायचरियं में कुलवर्द्धन सेठ की पत्नी अपने शील रक्षा का कोई उपाय नहीं देखकर दृष्टान्त उद्बोधन के लिए राजा कामपाल एवं मदनधी की कथा सुनाती है । मदनश्री पर राजा विक्रमसेन आसक्त हो गया। उसने अपना प्रणय प्रस्ताव मदनश्री के पास भेजा। मदनश्री ने बड़ी कुशलता से काम लिया और राजा को अपने भवन में बुलवा लिया । जब राजा भोजन करने के लिए बैठा और मनोहर वस्त्रों से ढकी हुई बहुत-सी थालियों को उसने देखा तो उसने सोचा-अहो ! मुझे प्रसन्न करने के लिए मदनश्री ने अनेक प्रकार की रसोई तैयार की है। इससे राजा खुश हो गया । मदनश्री ने सभी थालियों से थोड़ा-थोड़ा भोजन राजा को दिया। तब कौतुहल से राजा ने पूछा-अनेक थालियों में से एक ही प्रकार का भोजन रखने का क्या प्रयोजन ? तब मदनश्री ने कहा-'पर से ढके हुए रेशमी वस्त्रों को दिखाने का प्रयोजन था।' तो राजा ने कहा कि इस प्रकार की व्यर्थ मेहनत करने से क्या लाभ ? जबकि भोजन एक ही था । तब मदनश्री ने कहा--जिस प्रकार से एक ही भोजन अलग-अलग थालियों में विचित्र दिखाई देता है उसी प्रकार बाहर के वेश से युवतियों का शरीर अलग-अलग दिखाई देता है किन्तु भीतर चर्बी, माँस, मज्जा, शुक्र, फिप्पिस, रुधिर, हड्डी आदि से युक्त अपवित्र वस्तुआ का भण्डार रूप सभी स्त्रियों का शरीर एक जसा है। फिर भी पुरुष बाहरी रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाता है । जैसे सभी भोजन का स्वाद एक जैसा है वैसे ही सभी स्त्रियों में एक जैसा ही आनन्द है । अतः अपनी पत्नी में ही सन्तोष कर लेना चाहिए। इस दृष्टान्त से राजा प्रतिबोधित हो जाता है । (ग) आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने अपने प्रसिद्ध कथाग्रन्थ आख्यानकमणिकोश में रोहिणी कथा में भी इसी तरह की कथा दी है। इसमें रोहिणी का पति धनावह सेठ धनार्जन के लिए विदेश चला जाता है । वहाँ का राजा रोहिणी पर मुग्ध हो उससे काम-याचना करता है। रोहिणी अपने शील रक्षा का अन्य उपाय न देखकर राजा को स्वयं अपने यहाँ बुलवा लेती है तथा राजा को मर्मस्पर्शी शब्दों में उपदेश देती है हे राजन ! अनीति में लगे हुए दूसरों को आप शिक्षा देते हैं किन्तु अनीति में लगे हुए आपको कौन शिक्षा देगा? हे राजन् ! अनुराग के वश से थोड़े से किये गये अनुचित कार्य का भारी परिणाम जीवों को भोगना पड़ता है । यौवन की मदहोशी से बिना विचारे जो कार्य किये जाते हैं उन कार्यों के परिणाम हृदय को पीड़ा पहुंचाने वाले होते हैं । आपकी पीव, वसा, माँस, रुधिर, हड्डी (अशुचि पदार्थों) से भरी हुई इन महिलाओं के प्रति इतनी आसक्ति क्यों है और आप अपने कुल को कलंकित क्यों कर रहे हैं ? आप प्रजा के लिए पिता के समान हो । आपको ऐसा अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए। १. नायाधम्मकहा (मल्ली अध्ययन) पाथर्डी, १९६४ २, जैन, हुकमचंद, रयणचूडरायचरियं का आलोचनात्मक सम्पादन एवं अध्ययन-थीसिस १६८३ पृ० ५०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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