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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
अब नहीं रहे । भद्र ेश्वर तीर्थ में भी सुन्दर दादावाड़ी है । मजल गाँव में भी दादा साहब की चार मूर्तियाँ हैं। यहाँ के जन्मे हुए चारित्रात्माओं ने खरतरगच्छ को सुशोभित किया है । उनमें जिनरत्नसूरि जी, उ. लब्धिमुनि जी और योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानन्दजी महाराज उल्लेखनीय हैं। वर्त्तमान में श्री मोहनलालजी महाराज के संघाड़े में श्री जयानन्द मुनिजी हैं ।
गुजरात में जामनगर में खरतरगच्छ के ८० घर, उपाश्रय, मन्दिर व ज्ञान भंडारादि हैं । पादरा में दादावाड़ी है । पहले खरतरगच्छ के घर थे । अब तो सर्वत्र तपागच्छ है पर लगभग ३०-४० साध्वियाँ खरतरगच्छ में दीक्षित हैं ।
श्री पूज्यों के पुराने दफ्तरों में सैकड़ों गाँवों के श्रावक वर्ग के नाम पाये जाते हैं जो खरतर - गच्छानुयायी थे । अब ये साधु-साध्वियों की सत्संग मिलने के अभाव में भिन्न सम्प्रदाय या गच्छों में परिहो गये हैं ।
मद्रास नगर भारत के समृद्धिशाली नगरों में हैं, वहाँ भी प्राचीन मन्दिर विद्यमान हैं, मद्रास की दादावाड़ी सेठ मोतीशाह नाहटा की ही देन है । मोतीशाह का व्यापार कलकत्ता में भी था और किसी की साझेदारी में था । बम्बई में तो आपके जिनालय, दादावाड़ी, पींजरापोल आदि द्वारा बहुत बड़ी देन है ।
दक्षिण भारत में राजस्थान से गये हुए लोगों ने अपने पैर जमाये और धर्मध्यान के हेतु मन्दिर, दादावाड़ी आदि निर्मित कराये । श्रमणवर्ग का भी विहार क्षेत्र बढ़ा और विविध प्रकार से कार्यकलापों में अभिवृद्धि हुई । कुनूर, बेंगलौर, मैसूर इत्यादि सर्वत्र दादावाड़ियाँ व मन्दिर बने । खरतरगच्छ के साधु-साध्वियाँ भी उधर गये और अपने उपदेशों द्वारा सेवाएँ दीं ।
चैत्यवास का उन्मूलन कर विधिवाद प्रचारित करने के हेतु स्थान-स्थान पर विधिचैत्य प्रतिष्ठित हुए । विधिमार्ग या खरतरगच्छ एक दूसरे के पर्याय हैं। शत्रुंजय में खरतरवसही जो मानतुंग प्रासाद था, निर्माण के पूर्व ही वहाँ कई मन्दिर खरतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित विधिचैत्य थे । पुरानी खरतरवसही विमलवसही का अधिकांश भाग था । शुभशीलमणि ने सं १५२१ में रचित पंचशती प्रबन्ध में १०५४ प्रतिमाओं का उल्लेख किया है - " ततः खरतरवसहिकयां १०५४ जिनान् " शत्रुंजय पर बुल्हावसही, श्र ेयांसनाथ मंदिर, अष्टापद प्रासाद आदि १३वीं १४वीं शती के खरतरगच्छीय मंदिर थे । सोलहवीं शताब्दी के प्राग्वाट कर्णसिंहकृत चैत्य परिपाटी रास की १७वीं गाथा में १४५८ बिम्ब और स्थान-स्थान पर कौतुकपूर्ण मण्डप होने का उल्लेख है । यह जिनालय कर्मचंद्र वच्छावत के पूर्वज तेजपाल रुद्रपाल निर्मार्पित था । नगरकोट कांगडा की खरतरवसही श्री जिनपतिसूरिजी के कुटुम्ब में माल्हू गोत्रीय विमलचन्द ने बनवायी और उनके पुत्र क्ष ेमसिंह ने वासुपूज्य स्वामी आदि के बिम्ब विराजमान कराये । सं० १३३३ में क्षेमसिंह ने शत्रुंजय का संघ निकाला था ।
आबू तीर्थ पर विमलवसही तो वर्द्ध मानसूरि प्रतिष्ठित थी ही, उन्होंने ही तीर्थ प्रगट किया था। वहाँ सर्वोच्च तीन मंजिला पार्श्वनाथ जिनालय भी खरतरवसही है जिसका निर्माण उ. जयसागरजी के भ्राता मण्डली आदि ने निर्माण कराया था, ये दरड़ा गोत्रीय महद्धिक श्रावक थे ।
सं० १५११ के लिखे एक पत्र में जयसागरोपाध्याय के सम्बन्ध में अनेक ऐतिहासिक बातें हैं । गिरनार तीर्थ की खरतरवसही लक्ष्मीतिलक प्रासाद जब नरपाल संघपति ने बनाना प्रारम्भ किया तो अम्बादेवी श्रीदेवी आदि आपके प्रत्यक्ष हुए थे । सेरिसा पार्श्वनाथ जिनालय में धरणेन्द्र पद्मावती प्रत्यक्ष हुए ।
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