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________________ १४२ जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन तक स्त्रियों के द्वारा धर्मग्रन्थों के अध्ययन का प्रश्न है प्रागैतिहासिककाल में इस प्रकार का कोई बन्धन रहा हो हमें ज्ञात नहीं होता । अन्तकृद्दशा आदि आगम ग्रन्थों में ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं जहाँ भिक्षुणियों के द्वारा सामायिक आदि ११ अंगों का अध्ययन किया जाता था । यद्यपि आगमों में न कहीं ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख है कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं कर सकती थी और न ही ऐसा कोई विधायक सन्दर्भ उपलब्ध होता है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन करती थी । किन्तु आगमिक व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिवाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए निषिद्ध मान लिया गया । भिक्षुणियों के लिए दृष्टिवाद का निषेध करते हुए कहा गया कि स्वभाव की चंचलता, बुद्धि प्रकर्ष में कमी के कारण उसके लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषिद्ध बताया गया । जब एक ओर यह मान लिया गया कि स्त्री को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है तो यह कहना गलत होगा कि उनमें बुद्धि प्रकर्ष की कमी है । मुझे ऐसा लगता है जब हिन्दू परम्परा में उस नारी को, जो वैदिक ऋचाओं की निर्मात्री श्री वेदों के अध्ययन से वंचित कर दिया गया तो उसी के प्रभाव में आकर नारी को जो तीर्थंकर के रूप में अंग और मूल साहित्य का मूलस्रोत थी, दृष्टिवाद के अध्ययन से वंचित कर दिया गया । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि दृष्टिवाद का मुख्य विषय मूलतः दार्शनिक और तार्किक था और ऐसे जटिल विषय के अध्ययन को उनके लिए उपयुक्त न समझकर उनका अध्ययन निषेध कर दिया गया हो । बृहत्कल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य की पीठिका में उनके लिए महापरिज्ञा, अरुणोपपात और दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध किया गया है । किन्तु आगे चलकर निशीथ आदि अपराध और प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थों के अध्ययन से भी उसे वंचित कर दिया गया । यद्यपि निशीथ आदि के अध्ययन के निषेध करने का मूल कारण यह था कि अपराधों की जानकारी से या तो वह अपराधों की ओर प्रवृत्त हो सकती थी या तो दण्ड देने का अधिकार पुरुष अपने पास सुरक्षित रखना चाहता था । किन्तु निषेध का यह क्रम आगे बढ़ता ही गया । बारहवीं तेरहवीं शती के पश्चात् एक युग ऐसा भी आया जब उससे आगमों के अध्ययन का मात्र अधिकार ही नहीं छीना गया अपितु उपदेश देने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया । आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा तपागच्छ में भिक्ष णियों को इस अधिकार से वंचित ही रखा गया है । यद्यपि पुनर्जागृति के प्रभाव से आज अधिकांश जैन सम्प्रदायों में साध्वियाँ आगमों के अध्ययन और प्रवचन का कार्य कर रही हैं । निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक काल और आगम युग की अपेक्षा आगमिक व्याख्या युग में किसी सीमा तक नारी के शिक्षा के अधिकार को सीमित किया गया था । तुलनात्मक दृष्टि से यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि नारी शिक्षा के प्रश्न पर वैदिक और जैन परम्परा में किस प्रकार समानान्तर परिवर्तन होता गया । आगमिक व्याख्या साहित्य के युग में न केवल शिक्षा के क्ष ेत्र में अपितु धर्मसंघ में और सामाजिक जीवन में भी स्त्री की गरिमा और अधिकार सीमित होते गये । इसका मुख्य कारण तो अपनी सहगामी हिन्दू परम्परा का प्रभाव ही था किन्तु इसके साथ ही अचेलता के अति आग्रह ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा अपेक्षाकृत उदार रही, किन्तु समय के प्रभाव से वह भी नहीं बच सकी और उसमें भी शिक्षा, समाज और धर्मसाधना के क्षेत्र में आगम युग की अपेक्षा व्याख्या युग में नारी के अधिकार सीमित किये गये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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