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________________ एक सफल अनुवाद-करयित्री : आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री म० -साहित्यश्री डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' एम० ए० (स्वर्णपदक प्राप्त), पी-एच० डी०, डी० लिट० एक भाषा में उपलब्ध पाठ सामग्री को दूसरी भाषा की समतुल्य पाठ सामग्री में रूपान्तरित करने की प्रक्रिया और परिणति-विशेष अनुवाद है। रूपान्तरण की इस प्रकृष्ट प्रक्रिया में अनुवाद-कर्ता को उस अनुभव के दौर से गुजरना होता है जिस अनुभवों के पड़ावों से होकर स्रष्टा-लेखक की लेखनयात्रा सम्पन्न हुई होती है । अपने इस महनीय प्रयत्न में अनुवादक को लेखक की मानसिक पर्तों को चीरतेविश्लेषित करते हए गहरे और गहरे पैठना होता है । साथ ही उसे सम्पूर्ण मनो प्रक्रिया को पुनः सृजित करना होता है । अनुवाद दो प्रकार से किया जाता है-एक तो जो है, उसे ज्यू का त्यूँ रूप देना; दूसरा वह, जो मूल पाठ है उसमें समाहित 'साहित्य रस' को धूमिल-मलिन न करते हुए उसकी अर्थवत्ता-प्राणवत्ता को रूपायित-शब्दायित करना होता है। अनुवाद समतुल्यता की साधना है। इस समतुल्यता की सिद्धि जितनी अधिक होगी अनुवाद उतना ही सुष्ठु और सफल होगा। यह अपने में तथ्यपूर्ण है कि शब्दों की अर्थच्छायाओं, अर्थच्छवियों तथा अभिव्यक्ति की वक्रताओं/श्लिष्टताओं के एवं वाक्य-रचना-वैभिन्न्य के अनेक बाधा-बन्धनों के कारण हम जिसकी उपलब्धि अनुवाद में कर पाते हैं वह अन्ततोगत्वा सन्निकटन (Approxination) ही होता है । यह सन्निकटन आदर्श तो हो सकता है, यथार्थ कदापि नहीं । आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री महाराज एक विदुषी साधिका हैं । आपका व्यक्तित्ववक्तृत्व कला से अभिमण्डित है। आप गीतार्थ, आगमज्ञ और परमशान्त उज्ज्वल चरित्रवान हैं। आप लेखिका हैं और हैं एक कवयित्री । आपश्री हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, उर्दू, राजस्थानी आदि भाषाओं की प्रखर पण्डिता हैं । आपने पुण्य-जीवन-ज्योति, सज्जन विनोद, कुसुमांजली, गीताञ्जली, पुष्पाञ्जली आदि का प्रणयन किया है । श्रीमद् देवचन्द्रजी कृत देशनासार एवं कल्पसूत्र लक्ष्मीवल्लभी टीका का अनुवाद किया है । श्री जिनकुशलसूरि विरचित 'श्री चैत्यवन्दन कुलक-वृत्ति' का हिन्दी अनुवाद भी आपश्री की सशक्त लेखनी से हुआ है। प्राकृत भाषा में लिखित 'श्री चैत्यवन्दन कुलक-वृत्ति' नामक कृति में जैन श्रावक-श्राविकाओं के कर्तव्य, आचार-विचत्र पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । अनुवादिका साध्वीश्री इस कृति की अनूठी पाठ-सामग्री से, उनके स्वरूप से जुड़ी हुई हैं। उनकी भाषा में तरलता, सुकुमारता, श्लिष्टता और मार्दव भाव समाहित है । मूल कृति शास्त्र है, बौद्धिक और विचारात्मक है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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