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________________ एक सफल अनुवाद -करियत्री आर्यारत्न प्रवर्तिनीश्री सज्जन श्री म० १६७ लेकिन साध्वीजी ने चौबीस कथाओं का समायोजन कर अनुवाद रचना को जीवन्त रुचिवन्त बना दिया है । महान कवियों की रचनाओं की हर युग में नये-नये अर्थ और नई-नई व्याख्ताएँ होती हैं । अनुवादिका इस कृति के मूल लेखक के मन्तव्य को भली-भाँति आत्मसात् करके उसमें साधारण से साधारण शब्दों at भी अपने अभिनव प्रयोग-कौशल से एक असाधारण अर्थ और चमक देने में सफल सिद्ध हुई हैं । काव्य, कथा और शास्त्र का अद्भुत संगम लिए यह कृति अनुवाद की समतुल्यता के गुण से अभिमण्डित है । मूलकृति के नियतार्थ और निश्चयार्थ सीमा को अनुवादिका ने अपने अनुवाद - कौशल से उसकी काव्य भाषा की अक्षमता को विस्तीर्ण और असीम बना दिया है। साध्वीश्री के इस कौशल का एक नमूनानिदर्शन दृष्टव्य है- 'खीरं दहि नवणीयं घयं तहा तिल्लमेव गुड़मज्जं, महु मंस चेव तहा उग्गहिमगंच विगइओ । क्षीर-दूध, दही, नवनीत मक्खन, घृत, तेल, गुड़, शक्कर, मद्य, मधु, माँस, हिमग - पक्वान्न ये दस उग्र विकृति मानी जाती हैं। इनमें से चार- मद्य, माँस, मधु और नवनीत तो सर्वथा ही अभक्ष्य हैं । शेष छह - दूध, दही, घृत, तेल, मिठाई, पक्वान्न अर्थात् तली हुई खाद्य सामग्री - मोदक, बर्फी आदि मिष्ठान्न, मालपूये, पूरी, कचौरी, बड़े-पूवे, बड़े पकौड़ी, समोसे, कोफ्ते तथा तले हुए पापड़, पपड़ी, सलेवड़ेपीले खीचे, दालमोठ, चिउड़ा, चने की दाल, मूँग, उड़द तले हुए छोले चने, मूँगफली, बादाम, पिस्ते, काजू इत्यादि भी पक्वान्न माने जाते हैं । उत्कृष्ट से तो तनी हुई रोटी, पराँवठे, चिलड़े-घारड़े- उल्टे आदि भी पक्वान्न ही की गिनती में हैं ।" (पृष्ठ १२१ ) उक्त नमूने से स्पष्ट है कि उपरि-विवेचित अनुवाद के दूसरे प्रकार का व्यवहार साध्वीश्री ने इस अनुवाद कृति में सफलता के साथ किया है जिससे मूल कृति में निहित 'साहित्य रस' भी नष्टविनष्ट नहीं हुआ है अपितु सन्त अनुवादिका ने अपने अनुभव और अभिज्ञान का भी भरपूर उपयोग और लाभ उठाते हुए उसमें अभिव्यञ्जित अर्थच्छायाओं - अर्थच्छवियों को मूर्त रूप दिया है । इस प्रकार भाषा की संप्रेषणीयता, अर्थमत्तता और रोचकता का समाहार विवेच्य अनुवाद कृति में हुआ है । (अनुवाद की उक्त प्रवृत्तियों से अनुप्राणित विवेच्य कृति परिप्रेक्ष्य में आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री महाराज एक सफल अनुवादिका प्रमाणित होती हैं। शुभम् ! मंगल कलश ३६४, सर्वोदयनगर, आगरा रोड, अलीगढ़ २०२००१ ( उ० प्र०) - सज्जन वाणी १. आवेश, आवेग, उत्तेजना, आक्रोश मनुष्य की चिन्तन प्रणाली को नष्ट कर देते हैं । २. छिपा हुआ आक्रोश, दुर्भावना, डाह, निन्दा, चुगली, आदि के रूप में प्रकट होकर स्वयं को जलाते ही हैं, साथ रहने वाले व्यक्ति भी सुखी नहीं रहते । ३. ईर्ष्या, द्व ेष, आदि दुर्गुणों से ग्रसित मनुष्य स्वयं को तो दुःखी करते ही हैं, दूसरों के लिए भी सिरदर्द बन जाते हैं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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