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________________ १४४ खण्ड १ | जीवन ज्योति की अधिकारिणी बनती हैं। भगवान महावीर के युग में स्वयं उनके समवशरण में आर्यिकाओं का समुल्लेख मिलता है । श्रमणधर्म में नारी-सम्मान की, उसके उच्च स्थान की महिमान्वित गाथाएँ विराजमान हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में कहा है ननु सन्ति जीवलोके काश्चिच्छमशील-संयमोपेताः । निजवशतिलकभूताः श्रु तसत्यसमन्विता नार्यः ।। सतीत्वेन महत्त्वेन वृत्तन विनयेन च । विवेकेन स्त्रियः काश्चिद् भूषयन्ति धरातलम् ॥ (१२, ५७-५८) अर्थात् श्रु त, सत्य से समन्वित और शम-शील, संयम से युक्त नारियाँ धन्य हैं वे अपने सतीत्व महत्व, पावनाचरण, विनयशीलता तथा विवेकशीलता द्वारा संसार को सुशोभित करती हैं। जैनधर्म में नारी को नानाविधगुणसम्पन्न माना गया है। उसके सभी रूपों-माता, पुत्री, बहन, पत्नी का समाज में बहुमान है । वह न दासी है, न परतन्त्र, न भोग्या है न पदार्थ । उसका अपना सम्मानपूर्ण स्थान है समाज में । वह साध्वी बनकर पुरुषों को बोध देती है, सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है। राजीमती ने रथनेमि को प्रबोध देकर उसकी कामभावना को परिष्कृत किया था। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में उनका आख्यान प्रसिद्ध है। परम साध्वो 'प्रवर्तिनी' 'आगमज्योति' सज्जनश्री जी म० (जन्म सं. १९६५ बैशाखपूर्णिमा) का व्यक्तित्व भी प्रेरणादायक है । उन्होंने अपने तपःपूत प्रवचनों द्वारा अनेक लोगों को महावीर वाणी का कल्याणमय निर्झर प्रवाहित कर अध्यात्म ज्ञान से सूखे दिलों को हराभरा बनाया, उनमें तत्वज्ञान के बीज बोये। वह एक श्रेष्ठ लेखिका हैं, प्रतिभापूर्ण कवयित्री हैं। उनकी उर्वरा लेखनी से 'पुण्य जीवनज्योति', 'श्रमण सर्वस्व' तथा 'कुसुमांजलि' की रचना हुई, साथ ही उन्होंने कुछ पुस्तकों का हिन्दी-रूपातंर भी प्रस्तुत किया जैसे 'अध्यात्म प्रबोध' तथा 'व्रतारोप विधि'। उन्होंने 'कल्पसूत्र' की व्याख्या भी की है और 'द्वादश पर्व व्याख्यान' की रचना भी उनकी लेखनी से प्रसूत हुई है । उससे विदित होता है कि साध्वी सज्जनश्री जी म. लेखनकला में कितनी सिद्धहस्त हैं और साथ ही एक रससिद्ध कवयित्री हैं जो आगमोपदेश के द्वारा जनमानस को अभिप्रेरित तथा प्रभावित करती हैं। वह एक तपःपूत व्यक्तित्व की धनी हैं । उनके तप की पावनता दूसरों का मल हरती है, उन्हें भी पावन बनाती है। उन्होंने कल्याणतप, पंचमी सोलियातप, पखवासातप के अतिरिक्त नवपद ओली, विंशतिस्थानक तप ओली आदि भी किये । जहाँ इतनी तप-साधना उनमें है वहाँ स्वाध्याय की तल्लीनता भी देखने योग्य है । इस प्रकार तप और स्वाध्याय की दिव्याभा से उनका व्यक्तित्व अभिमण्डित है। साथ ही उनके व्यक्तित्व की उदारता भी दर्शनीय है। उसमें एक माता का ममत्व है, वात्सल्य है, करुणा है, स्नेह है, प्यार की ज्योति है । ऐसे विविध गुणों के तारों से जगमगाता उनका व्यक्तित्व सर्वहितकारी न होगा तो क्या होगा! पति, परिवार के बन्धनों की शृंखलाओं को विच्छिन्न करने वाली, महावीरउपदेष्टित मार्ग के बटोही बनकर जन-जन के मन-कलुष को धोने का प्रयास किया। राग-विराग से विमुख साध्वी सज्जनजी म. ने आगम-वाणी को जन-जन तक पहुँचाकर अहिंसा, मैत्री, समता, संयम, अनेकान्त, अपरिग्रह का अविरल प्रचार-प्रसार में योग दिया, आत्मकल्याण के साथ पर-कल्याण भी किया । आगम-ज्ञान-दीप को जीभ देहरी पर रखकर अपनाअन्तर्जगत् भी आलोकित किया और बाह्यजगत् भी--लोगों का मन भी आलोकित किया, तभी तो उनका कल्याण-क्षेत्र राजस्थान तक सीमित न रहकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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