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सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व : साध्वी सुरेखाश्री जी लाती है, शुद्धता लाती है । सम्यक्त्व नामक अध्ययन के अतिरिक्त अन्य अध्ययनों में भी सम्यक्त्व का उल्लेख तो है पर वहाँ भी सम्यक्त्व को सयम के मुनित्व के समान माना है । संयमी चारित्रवान् मुनि के आचार को ही सम्यक्त्व से अभिप्रेत किया है । सम्यक्त्व और मुनित्व का एकीकरण करते हुए कहा है कि
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"जो सम्यक्त्व है उसे मुनिधर्म के रूप में देखो और जो मुनिधर्म है उसे सम्यक्त्व के रूप में देखो ।”
हालाँकि चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार मौन अर्थात् मुनिधर्म-संयमानुष्ठान है । जहाँ मुनिधर्म है वहाँ सम्यग्ज्ञान है और सम्यग्ज्ञान जहाँ है वहाँ सम्यक्त्व है । ज्ञान का फल विरति होने से सम्यक्त्व की भी अभिव्यक्ति होती है । इस तरह सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र में एकता है ।
स्पष्ट है सम्यक्त्व को मुनित्व से अभिप्रेत किया गया है । मुनित्व अर्थात् आचरण की समीचीनता । सम्यक्त्व नामक अध्ययन में चार उद्देदेशक हैं । प्रथम उद्देशक में सम्यग्वाद का अधिकार है । अविपरीत अर्थात् यथार्थ वस्तुतत्व का प्रतिपादन हो, वह सम्यग्वाद है । इस उद्देशक में हिंसा का स्वरूप बताकर उसका निषेधात्मक रूप अहिंसा का विधान किया है कि जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, हुए थे तथा होंगे उन सभी का यह कहना है कि किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है और जिन प्रवचन में प्ररूपित है । इस प्रकार अहिंसा तत्व का सम्यक् एवं सूक्ष्म निरूपण के साथ अहिंसा की कालिक एवं सार्वभौमिक मान्यता, सार्वजनीनता एवं सत्यतथ्यता का सम्यग्वाद के रूप में प्रतिपादन किया है । अहिंसा व्रत को स्वीकार करने वाले साधक को कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे सावधान रहकर अहिंसा व्रत को स्वीकार करने का अहिंसा के आचरण के लिए पराक्रम करना चाहिए । इस प्रकार आचारांग के ४ - १ में सम्यग्वाद के परिप्रेक्ष्य में अहिंसा धर्म की चर्चा की गई है । चतुर्थ अध्ययन के दूसरे उद्द ेशक में धर्मप्रवादियों की धर्म परीक्षा का निरूपण आचरण में सम्यक्तता, समीचीनता लाती है, स्थिरता है । विभिन्न धर्मप्रवादियों के प्रवादों में युक्त
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विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयस का प्रधान कारण होता है । अथवा सम्यक् का अर्थ तत्व भी किया जा सकता है, जिसका अर्थ होगा तत्व दर्शन, अथवा यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है, जिसका अर्थ है - जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानने वाला ।
सम्यक् शब्द की व्युत्पत्ति करने के पश्चात् अब 'दर्शन' शब्द की व्युत्पत्ति पूज्यपाद करते हैं'पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्' अर्थात् जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाय या देखना मात्र !
सिद्धसेन के अनुसार 'दर्शनमिति शेख्यभिचारिणी सर्वेन्दियानिन्द्रियार्थं प्राप्तिः' अव्यभिचारी इन्द्रिय और अनिन्द्रिय अर्थात् मन के सन्निकर्ष से अर्थ प्राप्ति होना दर्शन है । दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति 'दृशि' धातु के ल्युट् प्रत्यय करके भाव में इक् प्रत्यय होने पर जिसके द्वारा देखा जाता है, जिससे देखा जाता है तथा जिसमें देखा जाता है वह दर्शन है । इस प्रकार जीवाद के विषय में अविपरीत अर्थात् अर्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त ऐसी दृष्टि सम्यग्दर्शन है । अथवा " प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनमिति" अर्थात् जिनेश्वर द्वारा अभिहित अविपरीत अर्थात् यथार्थ द्रव्यों और भावों में रुचि होना यह प्रशस्त दर्शन है । प्रशस्त इसलिए है कि मोक्ष का हेतु है । व्युत्पत्ति पक्ष के आश्रित अर्थ को लेकर कहते हैं—संगतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् जिनप्रवचन के अनुसार संगत विचार करना वह सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार जिनोक्त तत्वों पर ज्ञानपरक होने वाली श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा ।
तत्त्वार्थ सूत्र में तथा टीकाकारों ने श्रद्धापरक अर्थ को लेकर ही सम्यक्त्व की व्युत्पत्ति की । किन्तु आगमों में इसका अर्थ भिन्न है । आगमों में सर्व प्राचीन व प्रथम अंग है आचारांग | आचारांग सूत्र आचारप्रधान है । आचारांग में सम्यक्त्व नामक अध्ययन होने पर भी सम्यक्त्व का अर्थ श्रद्धापरक नहीं वरन् सम्यक् आचारपरक है । सम्यक्त्व को स्पष्ट रूप से मुनि आचार कहा गया है । हाँ, सम्यक्आचार श्रद्धापूर्वक होता है। श्रद्धा