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________________ १२ खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ आचार-विचार की दो धातुओं से बनता है । जिसमें साध्वी मधुस्मिताश्री आचार की ऊँचाई व विचार की गहराई होती हैं (प. पू. शासनज्योति मनोहर श्री जी म. सा. की शिष्या) वही जीवन महान होता है। ___ मैं अपने आपको भाग्यशालिनी मानती हूँ कि विवेक-विलासी, संसार से उदासी, शिव मुझे आगमज्ञाता, परम विदुषी, आशु कवयित्री, रमणी की प्यासी, तत्त्व ज्ञान की उल्लासी पूज्य- परमपूज्या प्रतिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. की गुणवर्या श्री का जीवन भी लाखों में एक है । मानों गरिमा का वर्णन करने का अवसर प्राप्त हआ है। में जैसे पानी की नन्हीं सी बूद में कोई चमत्कार नहीं वैराग्य उन्हें पूर्व जन्म की विरासत के रूप में होता है, परन्तु वही नन्हीं बूद जब कमलिनी के मिला है। पत्तों का संसर्ग पा लेती है तो वह अनमोल मोती गणों की गुरुता के कारण व्यक्ति की महत्ता की आभा को प्राप्त कर लेती है। उसी प्रकार मैं बहती है। धीरे-धीरे आपश्री विनय-विवक- अपने आपको धन्य मानती हैं। स्वाध्याय-ज्ञान-ध्यान-तप जप से अभ्युदय के शिखर परमपूज्य सज्जनश्री जी म. सा. स्वनामधन्या पर पहुँचने लगी। तो हैं ही साथ में आपका जीवन तप, त्याग, संयम तथा ___ आपश्री अप्रमत्तता के साथ अध्ययन में सदा परोपकारमय है। आपने अपने ज्योतिर्मय जीवन संलग्न रहती हैं। वर्तमान में ८० की उम्र है, की खुशबू चारों तरफ फैला दी है। जो भी आपके स्वास्थ्य भी अनुकूल नहीं है फिर भी स्वाध्याय पक्ष सम्पर्क में आता है, आकर्षित हुए बिना नहीं रहता । कमजोर नहीं है। अध्ययन-अध्यापन में सदा आगे आपकी बुद्धि-पटुता भी गजब की है। एक ही रहती हैं। आपश्री का चिन्तन गहरा है, विश्ले- सामायिक के अन्दर भक्तामर स्तोत्र को कंठस्थ कर षण शक्ति अद्भुत है। ज्ञानी हैं, पर ज्ञान का लिया। अहंकार नहीं है। विनय-विवेक से समन्वित उनका में अपने आपको बहुत ही भाग्यशालिनी मानती जीवन दर्शन प्रेरक है। हूँ कि मुझे आपश्री का सान्निध्य प्राप्त हुआ। दीक्षा से पूर्व गृहस्थ-जीवन में चार वर्ष तक मुझे आपका आपश्री के जीवन में सरलता अजब गजब की सान्निध्य, ओजस्वपूर्ण वाणी, वात्सल्यता तथा आपका है। कैसा भी प्रश्न उपस्थित हो जाय बिना किसी निर्देश बराबर मिलता रहा। संयम ग्रहण करने के तनाव व आक्रोश के उलझन को सुलझन का रूप दे पश्चात अभी मैंने प्रथम पश्चात् अभी मैंने प्रथम बार जयपुर में आपश्री के देती हैं। दर्शन कर अपना अहोभाग्य समझा। थोड़े समय के ____ आपश्री की विशेषताओं को देखकर सभी पूज्य संयोग ने तथा आपकी स्नेहमयी वाणी ने मेरे जीवन वर्याओं के मुंह से यही उद्गार निकलते "शिष्या बने __ को मोह लिया। समयाभाव तथा आगे की परितो ऐसी जो स्वयं भी सुखी उनसे दूसरे भी सुखी ।" अरे, स्थितियों को देखते हुए हमें इच्छा न होते हुए भी कोई तो सज्जन बनो। नीति में भी कहा है कि जयपुर से प्रस्थान करना पड़ा । विहार करते समय ' आपके मुर्ख रूपी कमल से यही शब्द स्फुटित हए कि "भक्त चित्त में रहे प्रभु वह नर धन्य है। ऋजु परिणामी बनो, शासन की सेवा करो, जीवन प्रभुचित्त में रहे भक्त वह नर धन्योत्तम धन्य है।" को उन्नत बनाओ। इस पावन बेला में मेरे अन्तर् हृदय में जो भाव आपकी जीवन गत गुण गरिमा के लिए कितना उमड़ रहे हैं उन्हें आपश्री "सुदामा के तन्दुल" की क्या लिखू। आपकी सर्वोन्नत प्रतिभा का आलेखन तरह अवश्य स्वीकार करें। करने में यह कलम सक्षम नहीं है । अन्त में शासन देवी तथा गुरुदेव से यही मंगल कामना करती हूं ● कि आप दीर्घायु बनें। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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