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________________ खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ विभिन्न आम्नाय-प्रतिनिधि प्रमुख सदग हस्थों जैनसंघों, संस्थाओं एवं श्रध्दालु श्रावकों की शुभकामना-वन्दना - श्री विमलचन्दजी सुराना (जयपुर) श्री उमरावमलजी चौरडिया (जयपुर) श्रमणत्व का सार है कषायों की निवृत्ति । इस जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ के आर्यारत्न अर्थ में पूज्याश्री का जीवन वास्तव में श्रमणी जीवन प्रवतिनी श्री सज्जनश्री जी महाराज साहब का है । ज्ञान के भंडार होने पर भी अहं का लेशमात्र अभिनन्दन करने का निश्चय किया है, यह परम भी नहीं । आप सरलता की प्रतिमूर्ति हैं। उनके सौभाग्य की बात है। गुणानुमोदन के लिए लिखा गया यह 'ग्रन्थ' हमारी अभिनन्दनीय का अभिनन्दन करने का तो राग-द्वेष की सारी ग्रन्थियों को तोड़ने वाला बने, हमारा सामर्थ्य कहाँ है ? निश्चय ही उनके उदात्त यही आपश्री के प्रति वास्तविक श्रद्धांजलि होगी। तत्वज्ञानमय विचार, हृदयंगम कराने की अप्रतिम प्रतिभा, शान्त, सेवाभावी एवं निरभिमानी व्यक्तित्व जन-जन का प्रेरणास्रोत बन समाज को एक 0 श्री हरिश्चन्द्र जी बड़ेर (जयपुर) नया दिशा-दर्शन देता रहेगा। इसी भावना के साथ श्रीचरणों में भावांजलि एवं ग्रन्थ के लिए शुभमहासती परम पूज्या श्रद्धय सज्जनश्रीजी कामनायें। म. सा. उत्कृष्ट कोटि की साधिका हैं। श्री जवाहरलालजी मुणोत (बम्बई) ., श्रद्धय महासती जी का जीवन महान् है । मैं इन महान् साधनाशील महासती जी के लिये जिनेश्वर (भू० पू० अध्यक्ष-अ० भा० श्वे० स्थानकवासी भगवान् से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप स्वस्थ जैन कान्फ्रेंस, दिल्ली) एवं दीर्घ जीवन जीयें, प्रकाश से महाप्रकाश की जैन समाज की एक परम दैदीप्यमान महासती ओर इतने अग्रसर हो जायें कि इसी भव में मक्ति श्रमणी आर्यारत्न प्रवतिनीजी श्री सज्जनश्री के महान अधिकारी बनें और जिनशासन की जी महाराज साहब का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रस्तुत अधिकाधिक सेवा करें और आपके अनमोल मार्ग- किया जा रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है। दर्शन के माध्यम से अनेक आत्माएँ भवी बनें। रूढ़ और स्थूल रूप से जैनधर्म ने, समस्त धार्मिक संगठन को चार बहुत स्पष्ट भागों में 'जीवन चरित महापुरुषों के, विभाजित कर डाला-श्रमण और श्रमणी तथा हमें नसीहत करते हैं। श्रावक और श्राविका । भगवान् महावीर के क्रान्तिहम भी अपना अपना जीवन, कारी और अत्यन्त दूरदर्शी नियोजन का आधार स्वच्छ-रम्य कर सकते हैं।' देखिए, सुस्पष्ट है । इस प्राचीन और अर्वाचीन धर्म में ही पुरुष और स्त्री को केवल आलंकारिक रूप में नहीं बल्कि समस्त अधिकारों के साथ बराबरबराबर स्थान निर्धारित किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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