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खण्ड १ | जीवन-ज्योति : कृतित्व दर्शन तू शिववासी, मैं जगवासी अन्तर बहुतेरा रे, तेरे और मेरे बीच में, अन्तर बहुतेरा रे।
कैसे"..""॥१॥ वीतराग तू मैं हूँ सरागी कर्मों ने घेरा रे, मुझको तो प्रभु अशुभ कर्मों ने घेरा रे ।
कैसे....."२॥ सुख सिन्धु भगवान तुम्ही हो, मिटा दो फेरा रे, भव-भव का प्रभु जल्दी मिटा दो फेरा रे।
कैसे..."॥३॥ स्तुतिपरक मुक्तकों में कवयित्री ने तीर्थंकरों के अतिरिक्त अपने दादा गुरुओं श्री जिनदत्तसूरि, श्री जिनकुशलसूरि, श्री जिनचन्द्रसूरि आदि के प्रति अपनी गुरु-भक्ति व्यक्त करते हुए उनके तपस्वी, संयमी जीवन और धर्म प्रभावक व्यक्तित्व की अभिवन्दना की है। उनकी पूजा-अर्चना में कवयित्री भक्ति को केसर, शुभ भाव का चन्दन, निर्मल मति का कपूर, स्नेह के फूल चढ़ाती है। श्रद्धा के अक्षत, शुद्ध मनोबल के श्रीफल और सद्ज्ञान रूपी दीपक की जोत से उनकी पूजा करती है। यह भाव-पूजा कितनी भव्य और दिव्य बन पड़ी है।
गुरुदेव तुम्हारे पूजन को, एक तेरा पुजारी आया है, पद कमलों के प्रक्षालन को, नयनों में वारी लाया है....(स्थायी) तब अचल भक्तिमय केशर है, शुभ भाव का चन्दन शीतल यह, निर्मल मति का कपूर मिला, तेरे चरणों पे चढ़ाया है.....॥ १॥ ये स्नेह भरे वर सुमन प्रभो, अंजलि में ले आया ले लो, और अशुभ विचार की धूप जला, सुविचार सुगन्ध फैलाया है"॥ २ ॥ सद्ज्ञान ज्योतिमय दीपक है, जिससे निज पर का भेद दिखा, श्रद्धा के उज्ज्वल अक्षत ले, सुन्दर स्वस्तिक यह रचाया है"""।। ३ ॥ तप संयम शील क्षमा मृदुता के नैवैद्य बने हैं रुचि कर ये,
विशुद्ध मनोबल श्रीफल ले, वांछित फल पाने आया है".""॥ ४ ॥
दादा गुरुओं के अतिरिक्त अपने गुरु श्री हरिसागरजी म. सा०, पूज्य आचार्यश्री आनन्दसागरजी मसा०, श्रीकवीन्द्रसागर जी मसा०, श्रीसुखसागरजी म. सा., श्रीकांतिसागरजी म.सा०, श्रीउदयसागर जी म.सा०, श्री मणिप्रभसागरजी म.सा० आदि के प्रति भी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किये हैं। इन मुक्तकों में कवयित्री की गुरुभक्ति और विनय-भावना प्रकट हुई है । आर्या सज्जनश्रीजी ने अपनी गुरुणी ज्ञानश्रीजी, उपयोगश्रीजी, स्वर्णश्रीजी, पुण्यश्रीजी एवं जैन कोकिला विचक्षणश्रीजी का गुणानुवाद भी किया है।
स्तुतिपरक मुक्तकों के अतिरिक्त जो उपदेशात्मक मुक्तक लिखे गये हैं, उनमें शरीर की नश्वरता, जग की अनित्यता का चित्रण करते हुए चंचल मन पर नियंत्रण करने, मोह रूपी निद्रा से जागने, क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कषायों पर विजय प्राप्त कर क्षमा, विनय, सरलता और संतोष धारण करने की प्रेरणा दी गयी है । इन मुक्तकों में सुमति-कुमति का मानवीकरण कर चिदानन्द को सचेत किया गया है कि वह कुमति का साथ छोड़कर सुमति को अपनाये । सुमति के वरण से ही नये समाज की और संसार की
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