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________________ आर्या सज्जनश्रीजी की काव्य-साधना रचना संभव है । कवयित्री के मन में जो नये संसार को रचने की भावना है, वह संसार ऐसा है, जिसमें अपने-पराये का भेद नहीं, जहाँ दुःख, ईर्ष्या और तृष्णा नहीं, सभी से मैत्री और प्रेम है एक नया संसार बसाऊँ, एक नया संसार."(स्थायी) भेद न हो जहाँ अपने पर का, कौन पराया कौन है घर का, हो समान व्यवहार, बसाऊँ""""॥ १॥ दुःख का जहाँ लेश न हो, ईर्ष्या तृष्णा क्लेश न हो, हों सुखी सभी नरनार, बसाऊँ ॥२॥ सभी जनों से मित्रता हो, नहीं किसी से शत्रुता हो, हो सबमें प्रेम प्रचार, बसाऊँ..."।। ३ ।। आनन्दमय जीवन हो सारा, ज्ञानोपयोग का हो उजियारा, ___ "सज्जन" मन के विचार, बसाऊँ ।। ४ ।। यह सही है कि कवयित्री का मन प्रभुभक्ति और गुरुभक्ति में ही अधिक रमा है। तथापि भक्ति के मूल में निहित सामाजिक चेतना से वह बेखबर नहीं है । भक्ति और पूजा के नाम पर व्याप्त आडम्बर, नामवरी, पद, प्रतिष्ठा उसे स्वीकार्य नहीं । पूजा के नाम पर क्रियाकांड होता रहे औरप्रभु-भक्ति के माध्यम से यदि गरीबों के प्रति प्रेम नहीं उमड़ता, अपने-पराये का भेद नहीं मिटता, मन का राग-द्वेष कम नहीं होता, देहासक्ति मिटती नहीं तो वह भक्ति और पूजा किस काम की ? दर्शन करें पूजन करें बारह व्रतधारी बनें। पर गरीब जन का खून चूसना, नहीं गया पर नहीं गया."॥ १॥ लाखों रुपये दान करते, दानी बने हैं कर्ण से। पर अपने नाम का मोह हृदय से, नहीं गया पर नहीं गया".."।। २ ।। धन-माल व परिवार सब सुख भोग तज साध बने । पर अपने-पर का भेद भाव तो, नहीं गया पर नहीं गया....."॥३॥ पोसह सामायिक नित करें, तपस्या भी करती खूब हैं । पर विकथा करना धर्मस्थान में, नहीं गया पर नहीं गया ॥ ४ ॥ विद्वान बन वक्ता बने, धर्मोपदेशक बन गये, अपने मन से रागद्वेष का भाव जरा भी, नहीं गया पर नहीं गया ।। ५। स्वाध्याय जप और ध्यान करते, अध्यात्म योगी बन गये, पर “सज्जन" कहे निज देहाध्यास तो, नहीं गया पर नहीं गया ।। ६ ।। इन भक्तिपरक रचनाओं में कवयित्री ने ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग को विशेष महत्व दिया है : १. शुभ उपयोग महा प्रतिक्षण बरतू', जीवन सफल बनाओ रे । "सज्जन" मननी ऐ अभिलाषा, शिवसुख भोगी बन जाओ रे । २ शुभ उपयोग में रमण करूं नित, “सज्जन" मांगे जिनन्द । ३. दर्शन ज्ञान चरणनी साधना रे, “सज्जन" करसे भव पार ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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