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________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १४६ आभूषण तो उसके शरीर से हट ही गये, वेशभूषा भी एक मान्य स्तर पर आने लगी है। आज बाजार जितना साड़ियों पर चलता है, उतना धोती और पैंटों पर नहीं चलता। घर में भी देखें, तो पुरुष और स्त्री के व्यक्तिगत व्यय और संग्रह में बहुत अन्तर मिलेगा। नारी को इस दिशा में पुरुष की तरह ही सुधार लाने की अपेक्षा है। भारतीय संस्कृति के अनुसार नारी के लिये शील ही शृंगार है, इस आदर्श को वह जीवन में चरितार्थ क्यों नहीं करती ? स्त्री और पुरुष के बीच एक-दूसरे का आकर्षण समान है, तो साज-सज्जा का अनहोना भार केवल नारी ही अपने सिर क्यों ले लेती है ? उसे भी अपनी वेष-भूषा के स्तर को पुरुष की तरह संयत और सादा बनाना चाहिये । आधुनिक वातावरण में नारी पहले से भी अधिक कृत्रिम होती जा रही है । लिपिस्टिक, पाउडर, विचित्र केशविन्यास कृत्रिमता के सजीव उदाहरण हैं। अनावरण की मानों प्रतियोगिता चल पड़ी है । अभयता के नाम पर नग्नता बढ़ रही है। आवरण और अनावरण की जैसे कोई रेखा ही नहीं रही है। एक सभ्य पुरुष धोती में या कुर्ते में, कोट, बुशशर्ट और पैंट में आवृत रहता है। सिर पर भी कुछ लोग टोपी या पगड़ी रख लेते हैं। स्त्रियों का आवरण मुख से गया, सिर से गया और अब पेट व पीठ से भी जा रहा है। यह निम्नता की प्रगति अश्लाघ्य है। नारी को स्वयं प्रबुद्ध होकर अपनी वेश-भूषा की संयत रेखाएँ स्थिर करनी चाहिये । उसके पक्ष में जनमत जागृत करना चाहिये ताकि सीमातीत अनावरण सामाजिक मान्यता न पा सके । अस्तु, कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है, नारी प्रगति पाये, परसत्य, संयम और सदाचार की पृष्ठभूमि पर। 03 नारी का मोह पाश पासेण पंजरेण य बज्झति चउपयाय पक्खीइ । इय जुवइ पंजरेण य बद्धा पुरिसा किलिस्संति ।। -इन्द्रिय पराजयशतक ५२ जैसे रस्सी से बँधे हुए चतुष्पाद-गाय, भैंस आदि एवं पिंजरे में बन्द पक्षी क्लेश को पाते है उसी प्रकार स्त्री रूपी पिंजरे में फंसा हुआ व्यक्ति भी क्लेश को पाता है। सज्जन-वाणी :१. धर्म हमें सदाचरण सिखाता है और दुराचरण पर अंकुश लगाता है ? २. धर्म का चिन्तन चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता और नैतिकता लाता है । ३. शालीनता, कारुण्य भावना, साम्य भावना और आदर्शवादिता धार्मिक शिक्षा की ही देन हैं। ४. धर्म नीति की निष्ठा और मर्यादाओं में रहना सिखाता है जिससे मानव जीवन सुखी बनता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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