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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ शेष अपनी शिष्याओं की और प्रशिष्याओं की शृंगारश्री को लावण्यवती देखकर अपनी वासना शिष्याएँ बनी थीं । गणनायक सुखसागरजी महा- का शिकार बनाना चाहा। उस समय पुण्यश्रीजी ने राज का वह स्वप्न कि "कुछ बछड़ों के साथ गायों कड़कती आवाज में उसको अनिष्ट की और सकेत का झुण्ड देखा" वह पुण्यश्री के समय में साकार किया। उसको दिखाई देने बंद हो गया, फलतः रूप ले गया।
उसने क्षमा याचना की और भविष्य के लिए कुसूखसागरजी महाराज के समुदाय के साधुओं वासनाओं से बचने की प्रतिज्ञा की। उसे पुनः की व द्धि के लिए भी ये सतत प्रयत्नशील रहीं और दिखाई देने लगा। संवत् १९४८ में फलोदी में नवअनेकों को साधमार्ग की ओर आकर्षित कर दीक्षाएँ निर्मापित आदिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा हई । दिलवाकर खरतरगच्छ की अभिवद्धि में अपना एक प्रतिष्ठाकारक थे श्री ऋद्धिसागरजी महाराज । विशिष्ट स्थान बनाया। महातपस्वी छगनसागरजी इस प्रतिष्ठा अवसर पर भगवानसागरजी, सुमतिभी आपकी ही प्रेरणा से संवत १९४३ में दीक्षित सागरजी, छगनसागरजी आदि भी विद्यमान थे। हुए । महोपाध्याय सुमतिसागरजी भी जिनका नाम संवत् १९४८ में फलोदी में ही ऋद्धिसागर जी सुजानमल रेखावत था, नागोर निवासी थे, आपकी महाराज के पास से पुण्यश्रीजी ने भगवती सूत्र की ही प्रेरणा से उन्होंने भी सं. १६४४ वैशाख सुदी ८ को वाचना ग्रहण की । संवत् १९५१ में जैसलमेर की सिरोही में भगवानसागरजी महाराज के पास दीक्षा यात्रा की । १९५१-५२ में खीचन के मूल निवासी ग्रहण की थी। अपने भाई चुन्नीलाल को भी प्रेरित तत्कालीन लश्कर-ग्वालियर नरेश के कोषाध्यक्ष कर संवत १९५३ में पाटण में दीक्षा दिलवाई थी; सेठ नथमलजी गोलेच्छा ने सिद्धाचल का संघ निकाजो कि बाद में गणनायक त्रैलोक्यसागरजी बने थे। लने का निर्णय किया और पुण्यश्रीजी से विनती पूर्णसागरजी और क्षेमसागरजी भी आपकी प्रेरणा की। इसी संघ के साथ इन्होंने सिद्धाचल की यात्रा से ही संवत् १९६३ में दीक्षित हुये । यादवसिंह की। संघ की अध्यक्षा थी सेठ नथमलजी की बहन कोठारी भी प्रज्ञानश्रीजी के प्रयत्नों और पुण्यश्रीजी जवाहरबाई । संवत् १९५९ में केसरियाजी की यात्रा की प्रेरणा से ही संवत् १९६८ में रतलाम में की । सं० १६६३ में कालिंद्री के संघ में जो वैमनस्य दीक्षित हुए थे, यही भविष्य में वीर पुत्र आनन्द था उसे समाप्त करवाया। १९६५ में रतलाल में सागरजी/जिनानन्दसागरजी बने थे।
दीवान बहादुर सेठ केसरीसिंहजी बाफना ने विशाल आर्यारत्न पण्यश्री जी का जैसा नाम था वैसे व दर्शनीय उद्यापन महोत्सव करवाया था। इस
उत्सव में यशमुनिजी महाराज (जिनयशःसूरिजी) ही पुण्य की पुज थीं, गुणधारक थीं। इनके कार्य
उपस्थित थे । १६६५ में मक्सी तीर्थ की यात्रा की। काल में जो विशिष्ट धार्मिक कृत्य सम्पन्न हुए
१९६६ में इंदौर निवासी सेठ पूनमचंद सामसुखा ने उनकी तालिका इस प्रकार है :
माण्डवगढ़ का संघ निकाला था। १९६६ में रघुसं. १६३७ में नागौर के संघ के साथ इन्होंने केस- नाथपुर के जागीरदार कुलभानुचन्द्रसिंह एवं रियाजी की यात्रा की। १६४१ में फलोदी में मंदिरों ठकूरानी को उपदेश देकर मांस का त्याग करवाया पर कलशारोपण व उद्यापन हुआ। १६४२ में कुचेरा था। १९६६ में ग्वालियर नरेश को भी उपदेश में जिनमंदिर के ताले लग गये थे, काँटों की दिया था और राजमाता, महारानियों को पर्व बाड लगा दी गई थी उसका निवारण कर वहाँ तिथि पर मद्य-मांस का त्याग करवाया था । शताधिक कुटुम्बों को मंदिरमार्गी बनाया था। १९७२ से १९७६ के चातुर्मास आपके जयपुर १९४४ में नागोर से संघ के साथ शत्रुजय तीर्थ की में ही हुए। अंतिम अवस्था में आप जयपुर आईं। यात्रा की थी। मार्ग में जंगल में एक अश्वारोही ने जयपुर का पानी आपको लग गया। फलतः अस्वस्थ Jain Education International
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