________________
→
६२ सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का परिचय : सन्तोष विनयसागर जैन रहने लगीं, शरीर व्याधिग्रस्त और जर्जर हो गया। पुण्यश्रीजी के सान्निध्य में सुवर्णश्रीजी की धर्माराधन और शास्त्रश्रवण करती हुई संवत् दीक्षा बारहवें नम्बर पर हुई थी। इनके दीक्षित १९७६ फाल्गुन सुदी १० को जयपुर में ही आप होने के पश्चात् साध्वियों की दीक्षाओं में अत्यधिक स्वर्गवासिनी हुई। मोहनबाडी मे आपका दाह- वृद्धि हुई । संवत् १९६१ तक यह संख्या लगभग संस्कार किया गया । और वहीं शिवजीरामजी १४० को पार कर गईं। पुण्यश्रीजी का यह मानना महाराज की छतरी के पास आपकी छतरी बनाकर था कि इस सुवर्ण के आने से यह वंश वृद्धि वेग से चरण पादुका स्थापित की गईं।
हुई । पुण्यश्रीजी का इन पर अत्यधिक स्नेह था। आपकी स्वहस्त दीक्षित शिष्याओं में से मह- स्वर्गवास के पूर्व इन्हीं को गणनायिका के रूप में त्तरा वयोवद्धा चम्पाश्रीजी का १०५ की अवस्था में घोषित किया था। संवत् १६७६ से सूवर्णश्रीजी इसी वर्ष स्वर्गवास हआ है। और प्रशिष्याओं में ने प्रतिनी पद का भार सकुशलता के साथ निर्वाह वयोवृद्धा रतिश्रीजी आदि अभी विद्यमान हैं। किया। इनकी स्वयं की १८ शिष्याएँ थीं, प्रशिष्याएँ आपकी साध्वीपरम्परा में आज भी ६० और १०० आदि भी बहुत रहीं। के भीतर शिष्याएँ विद्यमान हैं, धर्म प्रभावना आपके समय में जो विशिष्ट धार्मिक कृत्य हए करती हुईं शासन की सेवा कर रहीं हैं। उनकी सूची इस प्रकार है
(४) प्रवर्तिनी सुवर्णश्रीजी हापुड़ में मोतीलालजी बूरड द्वारा नवमंदिर प्रवर्तिनी पुण्यश्रीजी के स्वर्गवास के पश्चात्
का निर्माण हुआ। आगरा में दानवीर सेठ लक्ष्मी
चन्दजी वेद ने बेलनगंज में भव्य मन्दिर व विशाल उन्हीं के निर्देशानुसार प्रवर्तिनी सूवर्णश्रीजी हईं।
धर्मशाला बनाई। सौरीपुर तीर्थ का उद्धार करये अहमदनगर निवासी सेठ योगीदास जी बोहरा
वाया। महिला समाज की उन्नति हेतु दिल्ली में की पुत्री थीं। माता का नाम दुर्गादेवी था । इनका जन्म संवत् १६२७ ज्येष्ठ बदी १२ के दिन हुआ था।
साप्ताहिक स्त्री सभा प्रारम्भ की। संवत् १९८४
कार्तिक सुदी ५ के दिन जयपुर में धूपियों की सुन्दरबाई नाम रखा गया था। ११ वर्ष की अवस्था
धर्मशाला में धाविकाश्रम की स्थापना की। जो में संवत् १९३८ माघ सुदी ३ के दिन नागोर निवासी
राजरूपजी टांक आदि के सतत् प्रयत्नों से वीर प्रतापचन्दजी भंडारी के साथ इनका शुभ विवाह
बालिका महाविद्यालय के रूप में विद्यमान है। हुआ। संवत् १६४५ में पुण्यश्रीजी के सम्पर्क से
बीकानेर में बीस स्थानक उद्यापन महोत्सव करवैराग्यभावना जागृत हुई । बड़ी कठिनता से अपने
वाया। पति से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त कर संवत् १९४६ मिगसर सुदी ५ को दीक्षा ग्रहण की। केसरश्रीजी
अन्तिम अवस्था में साध्वी समुदाय की प्रवकी शिष्या बनी अर्थात् पुण्यश्रीजी के प्रपौत्र शिष्या तिनी का पद भार अपने हाथों से ज्ञानश्रीजी को बनीं । साध्वी अवस्था में नाम रखा गया सूवर्णश्री। प्रवतिनी बनाकर सौंपा। बड़ी तपस्विनी थीं । निरन्तर तपस्या करती रहती संवत् १९८६ माघ बदी ६ को बीकानेर में थीं । घण्टों तक ध्यानावस्था में रहा करती थीं। इनका स्वर्गवास हुआ। रेलदादाजी में इनका दाहअनेक वर्षों तक पुण्यश्रीजी महाराज के साथ ही रह संस्कार किया गया और वहाँ स्वर्ण समाधि स्थल कर उनकी सेवा शुश्रषा में लगी रहती थी। २२वाँ स्थापित किया गया। चौमासा अपनी जन्मभूमि अहमदनगर में किया था । वहाँ से चौबीसवाँ चौमासा बम्बई में किया
(५) प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी था।
प्रवर्तिनी स्वर्णश्रीजी के स्वर्गवास के पश्चात् ..
Jain Education International
For Private & Personal Use Only