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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ ज्ञानश्रीजी प्रवर्तिनी हुईं। इनका जन्म सम्वत् गुजराजजी वरड़िया के साथ हुआ था। छोटी अव१९४२ कार्तिक बदी १३ के दिन फलोदी में हुआ स्था में ही विधवा हो गई थी। ज्ञानश्रीजी के उपथा। इनका नाम था गीताकुमारी। केवलचंदजी देश से १६७४ माघ सुदी १३ को 'फलोदो में दीक्षा गोलेछा की ये सुपुत्री थी। मारवाड़ की पुरानी ग्रहण की थी। शिष्या अवश्य ही पुण्यश्रीजी की परम्परा के अनुसार गीता / गीथा का विवाह नौ कहलाईं। किन्तु सारा जीवन ज्ञानश्रीजी की सेवा वर्ष की अवस्था में ही भीकमचन्दजी वेद के साथ हो बीता । उदारहृदया और सेवाभाविनी थीं। कर दिया था। दुर्भाग्य से एक वर्ष में ही भीकम- सम्वत् २०१६ में जयपुर में इनका अकस्मात् ही चन्दजी वेद का स्वर्गवास हो गया और आप बाल- स्वर्गवास हो गया था। विधवा हो गईं। साध्वी रत्नश्रीजी के सम्पर्क से वैराग्य का बीज पनपा और आखिर में संवत् (७) प्रवर्तिनी विचक्षणश्रीजी १६५५ पौष सुदी ७ को गणनायक भगवानसागरजी, जैन कोकिला प्रख रवक्त्री विदूषी विचक्षणश्रीजी तपस्वी छगनसागरजी, त्रैलोक्यसागरजी की उप- का जन्म १९६६ आषाढ़ बदी एकम् के दिन अमरावती स्थिति में फलोदी में ही इनकी दीक्षा हुई। पुण्यश्री में हुआ था। इनके पिता का नाम था मिश्रीमलजी जी की शिष्या घोषित कर ज्ञानश्री नामकरण मूथा और माता का नाम था रूपादेवी। मूथा जी किया। मूलतः चीपाड के रहने वाले थे, किन्तु व्यापार हेतु अमरावती में निवास कर रहे थे। इस बालिका का ____ इन्होंने ४० वर्ष तक विभिन्न प्रान्तों-मारवाड़, जन्म नाम था दाखीबाई । दाख के अनुसार ही मेवाड़, मालवा, गुजरात, काठियावाड़ आदि में बाल्यावस्था से लेकर सांध्य बेला तक इनका व्यवहार विचरण कर धर्म का प्रचार किया। शत्रुजय, मधुर ही रहा । छोटी सी अवस्था में ही इस दाखां गिरनार, आबू, तारंगा, खम्भात, धुलेवा, माण्डव की सगाई पन्नालालजी मुणोत के साथ कर दी गई गढ़, मक्सी और हस्तिनापुर आदि तीर्थों की थी। संवत् १९७० में दाखां के पिता मिश्रीमलजी यात्राएँ की । सम्वत् १९८६ में इन्हें प्रवर्तिनी पद का अचानक स्वर्गवास हो गया । स्वर्णश्रींजी के दिया गया। तब से पुण्यश्री महाराज के समुदाय सम्पर्क में सतत् आने के कारण माता और पुत्री का सफलतापूर्वक नेतृत्व करती रहीं। आपने अनेकों को दीक्षाएँ प्रदान की। जिनमें पूज्य सज्जन दोनों ही दीक्षा की इच्छुक हो गई। ससुराल से श्रीजी आदि ११ शिष्याएँ हुई। सम्वत् १६६४ से आये आभूषणों को दाखां ने पहनना अस्वीकार कर शारीरिक अस्वस्थता और अशक्तता के कारण दिया। घर की शादियों में भी सम्मिलित नहीं हुईं। जयपुर में ही स्थिरवास किया। आपका स्वभाव इससे इनके दादाजी असन्तुष्ट हुए। माता-पुत्री के बड़ा शान्त था, प्रकृति बड़ी निर्मल थी। निन्दा द्वारा दीक्षा की अनुमति चाहने पर उन्होने अस्वीविकथा से दूर रहकर जप-ध्यान करती रहती थीं कार कर दी, बड़ी कठिनता से स्वीकार भी किया । और शासन-प्रभावना के कार्यों में दत्तचित्त रहती उत्सव भी चालू हुए ऐन वक्त पर दादाजी ने मना थीं । सम्वत् २०२३ चैत्र वदी १० को जयपुर में ही कर दी । और आखिर में निम्बाज ठाकुर के आपका स्वर्गवास हुआ। मोहनबाडी में इनका यहाँ इसकी पेशी हुई । निम्बाज ठाकुर ने दाखां का अग्नि-संस्कार किया गया। परीक्षण करने के पश्चात् दीक्षा की स्वीकृति दे दी। दीक्षा हेतु जतनश्रीजी, ज्ञानश्रीजी, उपयोगश्रीजी (६) उपयोगश्रीजी आदि पीपाड़ पहुंच चुके थे। इन्हीं की उपस्थिति में आप फलोदी निवासी कन्हैयालालजी गोलेछा संवत् १९८१ ज्येष्ठ सुदी पांचम को दीक्षा दी गई। की पत्री थी। केसरबाई नाम था । इनका विवाह दोनों के नाम-माता रूपाबाई का नाम विज्ञानश्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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