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________________ ६४ सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का परिचय : सन्तोष विनयमागर जैन और दाखां का नाम विचक्षणश्री रखा गया । और संवत् २०३३ में आपके सीने पर अकस्मात ही कैंसर दोनों को स्वर्णश्रीजी महाराज की शिष्या घोषित की गाँठ हो गई । वह गाँठ बढ़ती ही गई, गाँठ के किया । इन दोनों को बड़ी दीक्षा गणनायक हरिसा- साथ वेदना भी बढ़ती ही गई । आपने कभी उपचार गरजी महाराज ने दी और विचक्षणश्रीजी को जत- नहीं करवाया। अशुभ कर्मों का उदय समझकर नश्रीजी की शिष्या घोषित किया। शांत भाव से सहन करने में ही अपना कुशल क्षेम दीक्षा ग्रहण के पश्चात् शास्त्रों का अध्ययन समझा । देह भिन्न और आत्मा भिन्न है इस विभेद करने लगी। प्रखर बुद्धि थी ही और प्रतिभा भी ज्ञान को साकार रूप से अपने जीवन में चरितार्थ थी। कुछ ही समय में अच्छी विदुषी बन गई। किया । "तन में व्याधि मन में समाधि" धारण कर आपकी वाणी में श्रोता को मुग्ध करने का जाद एक अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया। अन्तिम दिनों में था। बड़ी-बड़ी विशाल सभाओं में निर्भीकता के तो गांठ के फूट जाने से जो असीम वेदना होती थी साथ भाषण/प्रवचन देती थीं। बडे-बडे जैनाचार्यों के उसे वे शांत भाव से सहन करती रहीं और संवत् समक्ष भी भाषण देने में कभी भी हिचकिचाई नहीं। २०३७ वैशाख सुदी को श्रीमालां की दादाबाडी. तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य यूग दिवाकर विजय जयपुर में इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्ग की बल्लभसूरिजी ने तो इनके भाषणों से मुग्ध होकर ओर प्रस्थान किया। मोहनबाड़ी में बड़े उत्सव के इन्हें "जैन कोकिला" से सम्बोधित किया था। साथ इनका दाह-संस्कार किया गया। मोहनवाडी प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् में ही इनका विशाल एवं भव्य समाधि मन्दिर बना इस समुदाय का भार इन्हीं के कन्धों पर आ गया है। और इन्होंने सफलतापूर्वक निभाया। विचक्षणश्रीजी ने अपना उपनाम 'कोमल' रखा अपनी समाज की गरीब महिलाओं के पोषण था । आपके द्वारा रचित भजन साहित्य प्रचुर संख्या हेतु इन्होंने प्रयत्न करके अखिल भारतीय सुवर्ण सेवा वों में प्राप्त हैं उसमें कई स्थल पर 'कोमल' का प्रयोग फण्ड अमरावती और जयपुर में स्थापित करवाये किया है । हृदय से जैसी कोमल थीं, मधूर थीं वैसी और दिल्ली में सोहनश्री, विज्ञानश्री कल्याण केन्द्र की ही अनुशासन प्रिय भी थीं। यही कारण है कि इनकी स्थापना करवाई । इन तीनों संस्थाओं से आर्थिक दीक्षित समुदाय में तब तक अनुशासन बना रहा । स्थिति से कमजोर महिलाओं को प्रत्येक प्रकार से अन्तिम समय के पूर्व आपने बड़ी बुद्धिमानी और गुप्त रूप से सहयोग दिया जाता है। रतलाम में वचक्षण्य का कार्य किया कि सज्जनश्रीजी को सुखसागर जैन गुरुकुल की स्थापना करवाई। प्रतिनी पद देने का निर्देश दिया और अपनी साध्वी समुदाय के लिए उनका नेतृत्व अपनी प्रथम शिष्या आपने अपने उपदेशों से अनेक बालिकाओं, अविचलश्रजी को प्रधान पद देकर उनके कंधों पर महिलाओं को प्रतिबोध देकर वैराग्य की ओर प्रेरित डाल दिया। किया और पचासों को दीक्षा प्रदान की। आपकी दीक्षित शिष्याओं में सर्वप्रथम दीक्षित अविचलश्री आज भी आपकी साध्वी समुदाय लगभग ५१ जी आज भी प्रधानजी पद को सुशोभित कर रही है और वह इस समय अनेक स्थानों पर विचरण हैं। इनको संवत् १९६१ में दीक्षा दी । कई शिष्याएँ कर रहा है। विदुषी हैं, व्याख्यान पटु हैं और आपके नाम को (८) प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी दीपित करती हुई शासन की सेवा में संलग्न हैं। गुलाबी नगरी जयपुर में ही जन्मीं, यहीं खेलीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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