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________________ ५६ खरतरगच्छ की संविग्न साधु का परम्परा परिचय : मंजुल विनयसागर जैन ये प्रतिभा के धनी और सिद्धहस्त लेखक थे । लेखन के साथ वक्तृत्व कला पर भी आपका पूर्ण अधिकार था । आपकी लिखित 'खण्डहरों का वैभव' और 'खोज की पगडंडियाँ" ये दो पुस्तकें तो संस्कृति एवं कला की दृष्टि से अद्वितीय हैं । पुरातत्व और कला के भी आप अधिकारी विद्वान् थे। जैन धातु प्रतिमा लेख, नगरवर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह, आयुर्वेदना अनुभूत प्रयोगो और सईकी आदि आपकी कृतियाँ प्रकाशित हुई। नागदा और एकलिंग जी पर आपने विस्तृत शोधपूर्ण पुस्तक लिखी थी, वह आपके स्वर्गवास के पश्चात् अन्धकार की गुफा में विलीन हो गई। आपका जीवन संघर्षपूर्ण रहा और अनेक विकट परिस्थितियों का आपको सामना करना पड़ा। २८ सितम्बर १६६६ को आपका जयपुर में स्वर्गवास हुआ। संवत् १९६४ के आसपास कृपाचन्द्रसूरिजी के समुदाय में लगभग ७० साध्वियाँ थीं, किन्तु खेद है कि आज इस समुदाय का एक भी साधु विद्यमान नहीं है और जो कुछ १५-२० साध्वियाँ शेष हैं वे मोहन लालजी म० की परम्परा के जयानन्दमुनिजी की निश्रा में संयम पालन कर रही हैं। ३. श्रीमोहनलालजी म0 का समुदाय श्री मोहनलालजी महाराज का नाम आज भी तपागच्छ और खरतरगच्छ में परम सम्मान और श्रद्धा के साथ लिया जाता है । ये मूलतः नागौर निवासी यतिवर्य ऋद्धिशेखर (रूपचन्दजी) के शिष्य थे। इनकी यति परम्परा में पूर्वज कीर्तिवर्धन (कर्मचन्दजी) जिनसुखसूरि के शिष्य थे । इनका मूल नाम मोहनलाल था । संवत् १६०० ज्येष्ठ सुदि तेरस को जिनमहेन्द्रसूरि के कर-कमलों से इनकी दीक्षा हुई थी। दीक्षा नाम मानोदय था। मूलतः ये मथुरा के निकट चन्द्रपुर ग्राम के निवासी थे । सनाढ्य ब्राह्मण बादरमलजी के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सुन्दरबाई था । संवत् १८६४ में इनके मातापिता ने नागौर आकर यतिवर्य रूपचन्दजी को समर्पित कर दिया था। यतिजी के पास रहकर ही विद्याभ्यास किया था। संवत् १९३० में अजमेर में क्रियोद्धार कर कठिन साध्वाचार का पालन करने लगे । संविग्न साधु बनने के बाद इन्होंने मारवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र आदि अनेक स्थानों पर विचरण कर चातुर्मास किये। १९४६ में शत्रञ्जयतीर्थ की तलहटी में मुर्शिदाबाद निवासी रायबहादुर धनपतसिंह दूगड द्वारा धनवसही की आप ही ने प्रतिष्ठा करवाई । बम्बई में सर्वप्रथम आप ही पधारे थे । इससे पूर्व कोई भी संविग्न साधु वहाँ नहीं गया था। तत्पश्चात् तो बम्बई क्षेत्र साधुओं के लिए खुल गया और सर्वदा नियमित रूप से साधुओं के वहाँ चातुमसि होने लगे। - आप बड़े समदर्शी थे। गच्छ का आग्रह आपकी दृष्टि में नगण्य था। यही कारण है कि आपने अपने विशाल शिष्य समुदाय को सहज भाव से यह स्वीकृति दे दी थी कि जो जिस गच्छ की भी क्रिया करना चाहे प्रसन्नता से कर सकता है। यही कारण है कि आपकी शिष्य परम्परा दो भागों में विभक्त हो गई-एक खरतरगच्छ की क्रिया करने वाले और दूसरी तपागच्छ की क्रिया करने वाले । आप बड़े तेजस्वी, शान्तस्वभावी, निर्मल चारित्र के धारक थे। बम्बई आदि में आपका अत्यधिक प्रभाव रहा। आज भी गुजरात और बम्बई आदि में सैकड़ों धर्मस्थानों पर मोहनलालजी महाराज के फोटो प्राप्त होते हैं। साधु समुदाय में सर्वप्रथम यही आचार्य बने । सम्वत् १६६४ वैशाख वदी चौदस को सूरतनगर में आपका स्वर्गवास हुआ। (१) जिनयशःसूरि वचनसिद्ध मोहनलालजी महाराज की खरतरगच्छ परम्परा में अिनयशःसूरिजी पहले आचार्य थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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