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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ इनका जन्म सम्वत् १९१२ में जोधपुर के सांड गोत्रीय पूनमचन्द जी की धर्मपत्नी मांगीबाई की कक्षि से हुआ था। इनका जन्म नाम जेठमल था। पिता के स्वर्गवास हो जाने पर अहमदाबाद जाकर ये नौकरी करने लगे। श्री जीतविजयजी म. के प्रयत्न में परासवा ग्राम (कच्छ) में जाकर धर्माध्यापक का कार्य करने लगे। १५ वर्ष पश्चात् जब वे कच्छ से जोधपुर लौटे, उस समय अपनी माता को जिनप्रतिमा के प्रति श्रद्धालु बनाया। जोधपुर में ही इन्होंने ५१ दिन की दीर्घ तपस्या की, जिसका पारणा दीवान कुन्दनमलजी ने अपने घर ले जाकर करवाया था। सम्वत् १९४१ जेठ सुदी पांचम को आपने मोहनलालजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की। उस समय आपका नाम यश मुनि रखा गया। सम्वत् १९५४ से ५६ तक पंन्यास दयाविमलजी के पास ४५ आगमों का योगोद्वहन किया और पंन्यास पद प्राप्त किया। १६५७-५८ में सूरत व बम्बई चातुर्मास कर आपने हर्ष मुनिजी को पंन्यास पद दिया था जो कि बाद में तपागच्छ परम्परा में चले गये थे। अनेकों स्थानों पर विचरण कर आपने शासन की महती प्रभवना की। ऋद्धिमुनि, रत्नमुनि, लब्धिमुनि आदि को आपने ही दीक्षा प्रदान की थी। सं० १६६५ में गुमानमुनि, ऋद्धिमुनि, केसर मुनि को आपने पंन्यास पद दिया था। अनेक तीर्थों की यात्राएँ की थीं । सम्वत् १६६६ ज्येष्ठ सुदी छठ के दिन आपको आचार्य पद प्रदान किया गया था। आप दीर्घ और उग्र तपस्वी थे। सम्वत् १९७० मिगसर सुदी तीज को पावापरी में आपका स्वर्गवास हुआ। (२) जिनऋद्धिसूरि चूरू के यतिवर्य श्री चिमनीरामजी के आप शिष्य थे। रामकुमार आपका नाम था और आप जाति से ब्राह्मण थे। वैराग्यवासित मन होने के कारण गद्दी की जंजाल में नहीं पड़े और वहाँ से चल कर नाल दादाजी के दर्शन किये और एक यतिजी के साथ गिरनार और सिद्धाचल तीर्थ की यात्रा की । सम्वत् १९४१ आषाढ़ सुदी छठ को मोहनलालजी महाराज के पास दीक्षा ली और रामकुमार से ऋद्धिमूनि बने । यशमुनिजी के शिष्य कहलाये। योगोद्वहन के पश्चात् सम्वत् १६६६ मिगसर सुदी तीज को ग्वालियर में यशमुनिजी ने आपको पन्यास पद प्रदान किया। सम्वत् १६६५ में बम्बई में आचार्य पद प्राप्त कर जिनयशःसूरिजी के पट्टधर के रूप में विख्यात हुए। सम्वत् १९९७ में रत्नमुनिजी को आचार्य पद देकर जिनरत्नसूरि बनाया और लब्धिमनिजी को उपाध्याय पद से अलंकृत किया। आप बड़े सरल और शांत स्वभावी थे, निश्छल हृदयी थे और साधनारत रहते थे। घण्टाकर्ण महावीर का आपको इष्ट था। स्थान-स्थान पर जैन शासन की प्रभावना के अनेकों कार्य किये। अनेकों मन्दिरों एवं मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवायीं। कई संघों के वैमनस्य को दूर करने में सफल हुए थे। कई जगह जैन बोडिंग स्थापित करवाये थे और कई स्थानों पर आयम्बिल खाते खुलवाये थे। थाणा में श्रीपाल चरित्र के कलापूर्ण भित्ति चित्रों के साथ भव्य एवं विशाल जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई थी। अनेक नवीन उपाश्रय बनवाए थे। कई मन्दिरों के जीर्णोद्धार आपके उपदेश से हए थे । बोरीवली का संभवनाथ मन्दिर का निर्माण भी आप ही के उपदेश से प्रारम्भ हुआ था । घण्टाकर्ण महावीर का इष्ट होने के कारण स्थान-स्थान पर घण्टाकर्ण महावीर की मूर्तियाँ स्थापित करवाई। सं० २००८ में आपका स्वर्गवास हुआ था । आपके मुख्य शिष्य थे गुलाबमुनि और प्रशिष्य थे महोदयमुनि । दोनों का ही स्वर्गवास हो चुका है । आपके सम्बन्ध में उपाध्याय लब्धिमुनिजी ने संस्कृत भाषा में 'जिनऋद्धिसूरि चरितं' लिखा है जो अभी तक अप्रकाशित है । खण्ड ३/८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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