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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ देन है । इतिहास तो इसका साक्षी है ही पर जीती, जागती, ओसवाल, श्रीमाल आदि कई जातियाँ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । चैत्यवास उन्मूलन के साथ मन्दिर की व्यवस्थाओं, पूजा पद्धतियों में भी शास्त्रानुकूल परिवर्तन हुए । विधिचैत्य बने जिनमें रोशनियाँ दण्डिया रास आदि तथा रात्रि जागरण निषिद्ध किये गये । तरुणी स्त्रियों को प्रभु की पूजा निषिद्ध की गई । संध्या की आरती होने के तुरन्त बाद जैन मन्दिरों के द्वार 'मंगल' (बन्द) कर दिये जाते थे । मन्दिर की चौरासी आशातनाएँ न हों, इसका कठोरता से पालन होने लगा । सचमुच उस समय जैन शासन को, संघ को, जिन-प्रासादों को, पतन के गहरे गर्त से उद्धार करने और सनातन विशुद्ध श्रमण संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठित करने का भागीरथ कार्य स्वनामधन्य आचार्य जिनेश्वरसूरि ने किया, जो जैन इतिहास के स्वर्णक्षरों में अंकित है। इस परम्परा के अनेक बहुश्र त, कवि शासन प्रभावक, ग्रन्थकार साधु-साध्वी और गृहस्थ विद्वान विश्वविख्यात हो चुके हैं । इनमें से कुछ का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत छोटे से लेख में देने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता । अतः इस परम्परा में सुप्रसिद्ध महान आचार्यों का, युग प्रवर्तक महान् आत्माओं का परिचय इस प्रकार है । सुविहित खरतरगच्छ के महान आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि थे। इनका परिचय ऊपर आ चुका है । ये साहित्यकार भी थे । इन्हीं के पट्टधर श्री अभयदेवसूरि थे। जिन्होंने श्री स्तम्भनक पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट की तथा नवांगी टीकाकार के नाम से जगविख्यात हैं । इन्हीं की पंचाशक वृत्ति, उववाईसूत्र वृत्ति, प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी, षट्स्थान, भाष्य, आगम अष्टोतरी, जयतिहुअण स्तोत्र आदि अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं । इन्हीं के गुरुभ्राता श्री जिनचन्द्रसूरि थे । इनकी रचनाएँ (संवेगरंगशाला श्रावक विधि आदि अनेक हैं। इनके पद पर (श्री अभयदेवसूरि की आज्ञा से) श्री देवभद्रसरि ने चित्तौड़ में श्री जिनवल्लभरि को पद पर आचार्य बनाया। इन्होंने बागड़ देश में विचरण कर १०,००० अजैनों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। इन्होंने पिण्डविशुद्धि, षडशीति चतुर्थ कर्म-ग्रन्थ, संघपट्टक, सूक्ष्मार्थ विचार-सार आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। धारा नगरी के नृपति श्री नरवर्म को अपनी लोकोत्तर प्रतिमा से चमत्कृत किया। इनके पट्टधर "बड़े दादाजी" के नाम से सुविख्यात जिनदत्तसूरि ने एक लाख तीस हजार अजैनों को जैन बनाया। अम्बिकादेवी ने युग-प्रधान पद दिया। सात राजाओं को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। बावन वीर तथा चौंसठ योगनियाँ एवं भैरव आपके आज्ञाकारी भक्त थे। इनके विषय में नाहटा बन्धु लिखित चरित्र देखना चाहिये । गुरुदेव ने कई ग्रन्थों का सृजन किया है, जिनमें गणधर सार्द्ध शतक, उपदेश रसायन सम्यक्त्व ब्रतारोपण विधि (चैत्यवन्दन कुलक) गणधर, सप्तति, चर्चरी आदि प्रमुख हैं। मणिधारी दादा के नाम से प्रसिद्ध श्री जिनचन्द्र सूरि इनके पट्टधर थे। जिन्होंने महत्तयाण जाति को जैन बनाया । महान सम्राट इन्द्रप्रस्थ के तोमरराज मदनपाल (अनंगपाल) को प्रभावित किया था । क्योंकि इस समय अनंगपाल दिल्ली के राजा थे, ऐसा इतिहासप्रसिद्ध है । (जैन साधु प्रायः पर्यायवाची शब्दों का या प्रचलित नाम की अपेक्षा उसका संस्कृत रूप ही अपनी रचनाओं में प्रयुक्त करते थे।) यह राजा आपका परमभक्त था । ___अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की राज्यसभा में तथा अन्यत्र ३६ बार विजय प्राप्त करने वाले श्री जिनपतिसूरि भी महान विद्वान और प्रतिभाशाली युगवर आचार्य थे। इन्होंने संघ पट्टक वृति समाचारी आदि अनेक ग्रन्थों का सृजन किया। इनके पट्ट पर श्री जिनेश्वरसूरि द्वितीय विराजमान हुए । अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा और कई भव्यात्माओं की भागवती दीक्षा आपके कर-कमलों मे खण्ड ३/६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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