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________________ ४० क्रान्ति के विविध रूप तथा धार्मिक क्रान्तिकारक : दर्शनाचार्य साध्वी शशिप्रभाश्री उठी और वैसे जीवन से भारी ग्लानि हो गई । वे श्री शत्रुञ्जय तीर्थाधिराज पर चले गये । पुनः सर्वविरति धारण कर घोर तपस्या द्वारा अपने पापों का प्रायश्चित्त किया। ऐसी अनेक घटनाओं से मध्यकालीन इतिहास भरा पड़ा है। ___एक क्रान्तिकारी व्यक्तित्व--महान् शासन प्रभावक जिनेश्वर सूरि १०,११वीं शताब्दी के प्रकाण्ड विद्वान, बिशुद्ध संयमी आबू पर्वत पर विमल मंत्रीकारित विमल वसही में प्रतिष्ठा कराने वाले श्री वद्धं मान सूरि के शिष्य थे। जिन्होंने इन चैत्यवासियों के प्रति जिहाद बोला चैत्यवासियों की धज्जियाँ उड़ा देने वाले संघ पट्टक ग्रन्थ के कर्ता श्री जिनवल्लभसूरि आपके ही चतुर्थ पट्टधर हुए हैं। गुरुजी भी तथा अनेक गुरुभाई बुद्धिसागर सूरि आदि साथ ही थे। उत्कृष्ट चारित्रपालन करने वाला यह साधुसमूह उस समय सारे जैन समाज में सुविहित पक्ष नाम से सुविख्यात था । इन्हीं जिनेश्वरसरि के व्यक्तित्व की विद्वत्ता, संयमदृढ़ता और वाक कुशलता ने पाटण की राजसभास्थित सुप्रसिद्ध चैत्यवासी सूराचार्य के साथ वाद-विवाद में विजय माला धारणा करायी। सुप्रसिद्ध-विद्वान श्रीजिनविजयश्री ने इसी प्रसंग को लेकर लिखा है ___"शास्त्रोक्त यतिधर्म के आचार और चैत्यवासी यतिजनों के उक्त व्यवहार में परस्पर बड़ा असामञ्जस्य देखकर और श्रमण भगवान महावीर उपदिष्ट श्रमणधर्म की इस प्रकार प्रचलित दशा से उद्विग्न होकर श्री जिनेश्वरसूरि ने इसके प्रतिकार के निमित्त अपना एक सुविहित मार्ग प्रचारक तथा मुनिजनों का गण स्थापित किया और इन चैत्यवासियों के विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरू किया। चौलुवय नृपति दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी पक्ष के समर्थक अग्रणी सूराचार्य जैसे महाविद्वान और प्रबल सत्ताशील आचार्य के साथ शास्त्रार्थ कर उसमें विजय प्राप्त की। उनकी शिष्य सन्तति बहुत बड़ी और अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में फैली हुई थी। उसमें बड़े-बड़े विद्वान क्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य उपाध्याय आदि समर्थ साधु पुरुष हुए। नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि, संवेगरंगशाला आदि ग्रन्थों के प्रणेता श्री जिनचन्द्रसूरि, आदिनाथ चरित्र रचयिता श्री वर्द्धमान सूरि, पार्श्वनाथ चरित्र एवं महावीर चरित्र के कर्ता गुणचन्द्र गणि (अपरनाम देवचन्द्रसूरि) संघ पट्टकादि अनेक ग्रन्थों के प्रणेता श्री जिनवल्लभसूरि इत्यादि अनेकानेक बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान और शास्त्रकार जो उस समय उत्पन्न हुए वे इन्हीं जिनेश्वरसूरि के शिष्यों-प्रशिष्यों में थे। चैत्यवासियों के गढ़ पाटण (गुजरात) की राजसभा में शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने और राजा द्वारा "आखरे-सच्चे हैं" कहने पर खरतर कहलाने लगे। और इन श्री जिनेश्वरसूरि का नाम मात्र पाटन में ही नहीं अपितु समस्त गुजरात, मारवाड़, मेवाड, मालव, पंजाब, सिन्ध आदि देशों में विख्यात हो गया। इस कार्य से अनेक चैत्यवासी आचार्य उपाध्याय और यति गणी आदि ने चैत्यवास का त्यागकर सुविहित मार्ग का अवलम्बन ले कठोर संयम का पालन करने में तत्पर बने। इनमें से कितने ही आपके शिष्य बने ? कितने ही आचार्यों ने अपने गच्छ गुरुपरम्परा में रहकर क्रियोद्धार किया। हजारों ही नहीं लाखों व्यक्तियों ने आपके व आपकी शिष्य परम्परा का त्याग, तप, संयम, और प्रभावशाली उपदेशों से चमत्कारी वासक्षेप से प्रभावित होकर जैनत्व धारण किया । मांस, मदिरा, शिकार आदि व्यसनों का त्यागकर ओसवाल जाति में, श्रीमाल जाति में, सम्मिलित हो गये । वद्धं मान सूरि से लेकर शताब्दियों तक इस पट्ट परम्परा के आचार्यों ने जो जैन जाति में वृद्धि की वह जैन शासन को एक अनुपम और अभूतपूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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