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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ राजनैतिक क्रान्ति-अत्याचारी शासक के विरुद्ध जनता विद्रोह कर उसे सत्ता से विहीन कर देती है। या उसे कारागार में डाल देती है। अथवा सशस्त्र क्रान्ति करे तो दोनों ओर से कई व्यक्ति मारे जाते हैं। जो अधिक बलवान् हो वह सत्ता हस्तगत कर शासक बन जाता है । सशस्त्र न हो तो बहुमत के अनुसार सत्ता मिल जाती है। और वही शासक बन जाता है। धार्मिक क्रान्ति-धर्म के दो तत्व हैं। १. दर्शन २. आचार । दार्शनिक क्रान्ति जगत के और जगत में विद्यमान स्थावर जंगम जीवों एवं पंचभूत आदि के उत्पत्ति, रक्षा और प्रलय के विषय को लेकर वैचारिक क्रान्ति आदिकाल से होती रही है और वर्तमान में भी कई दार्शनिक हैं जो इस सम्बन्ध में अपनेअपने चिन्तन प्रस्तुत करते हैं । संसार में दार्शनिकों की प्राचीन अथवा अर्वाचीन मान्यताएँ, जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों और तर्को की कसौटी पर खरी उतरती हो, अकाट्य प्रमाणों और तर्क द्वारा सिद्ध हो, जिनका वचन युक्तिपूर्ण हो वे ही दार्शनिक संसार में अमर बनते हैं। और बुद्धिमान व्यक्ति उन्हीं के वचनों पर विश्वास करके आत्मबल की साधना से अपना जीवन सफल कर लेते हैं। दूसरी आचार सम्बन्धी क्रान्ति तत्कालीन शिथिलाचार के विरुद्ध होती रही है। और अतीत से वह जगत के विभिन्न सम्प्रदायों में होती रही है। और वर्तमान में भी यह प्रायः होती रहती है। कई बार तो क्रान्ति के नाम पर मूल दार्शनिक मान्यताओं और आगमिक सत्यों को भी स्वपूजाकांक्षीजन नकार जाते हैं। और 'मेरा तो सच्चा' की धुन में सर्वज्ञ निरूपित सिद्धान्तों को भी तथा तीर्थंकर भगवन्त द्वारा आचरित कार्यों को भी पाप कहकर जैनशासन के प्रति घोर अनीति करते भयभीत तक नहीं होते, जैन इतिहास में वे निह्नब कहलाते हैं। शिथिलाचार के विरुद्ध क्रान्ति होती रही है। समय-समय पर होने वाले क्रियोद्धार इसके साक्षी हैं। काल के प्रभाव से चतुर्विध संघ में आचार, आहार, विहार व्यवहार सम्बन्धी शिथिलता आती रहती है। युगान्तरकारी पुरुष वे ही कहलाये जो स्वयं संयम-तप के कठोर पथ पर चलते हुए जनता के सामने प्रत्यक्ष आदर्श उपस्थित करके उसे अपनी ओर उन्मुख किया तथा साथ ही विद्वत्ता के बल पर अपने आचार-विचार और आगमिक ज्ञान सूत्र सिद्धान्तों की बातों को बड़े-बड़े नृपतियों व शासकों के सामने अन्य दार्शनिकों से वाद-विवाद करके सिद्ध किया और विविध प्रकार के विरुद प्राप्त किये। खरतर विरुद भी एक ऐसा ही विरुद है जिसे श्री उद्योतनसूरि के प्रशिष्य और श्री वर्द्धमानसरि के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि ने प्राप्त किया था। श्री वर्धमान जिनेश्वरसुरि के समय अणहिलपुर पाटन के नृपति दुर्लभराज भीम पर चैत्यवासी साध्वाभासों का बड़ा प्रभाव था। उन्होंने राजा से यह आज्ञा पत्र ले रखा था कि पाटण में हमारे अतिरिक्त कोई भी जैन साधु प्रवेश नहीं करेगा । चैत्यवासी जैन मन्दिर में रहते थे। और साध्वाचार के विपरीत उनके आचरण थे । सामान्य नीतिवान गृहस्थ से भी पतित अवस्था तक उनका पतन हो चुका था । यहाँ तक कि वेश्यागमन, मद्यपान, ध तरमण आदि व्यसनों तक के सेवन में आकण्ठ मग्न हो गये थे । पवित्र जैन देरासर और उपाश्रय उनकी रासलीलाओं के क्रीड़ागण बने चुके थे । देवद्रव्य का भक्षण करना उनका भोगों में दुरुपयोग करना तो साधारण बात थी । मात्र अपने मन्त्र-तन्त्र और विद्याबल से उन्होंने बड़े-बड़े नृपों पर अपना प्रभाव जमा रखा था। पतित अवस्था की पराकाष्ठा यहाँ तक पहुँच चुकी थी कि मुनिवेशधारी रत्नाकर सूरि को नगर के उपवन में घूमने गये हुए एक मन्त्री ने वेश्या के साथ भ्रमण करते, पान का बीड़ा मुख में दबाये, इत्र पुष्पमाला आदि धारण किये हुए देखा और वाहन से उतरकर मन्त्री ने उन्हें सविधि वन्दन किया। जिससे उनकी आत्मा काँप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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