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________________ जैन शिक्षा : स्वरूप और पद्धति -- डॉ० नरेन्द्र भानावत विद्वान लेखक, चिन्तक, कवि तथा शोध अधिकारी ( प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय ) शिक्षा का स्वरूप जिसने राग-द्वेष आदि विकारों पर विजय प्राप्त कर, आत्म-शक्तियों का पूर्ण रूप से विकास कर, परमात्मस्वरूप प्राप्त कर लिया है, वह "जित" है । "जिन" के उपासक जैन हैं । इस दृष्टि से जैन शब्द जिसी कुल, वर्ण या जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति का परिचायक न होकर गुणवाचक शब्द है । आत्मविजय के पथ पर बढ़ने वाला साधक जैन कहाता है। इस परिप्रेक्ष्य में जैन शिक्षा वह शिक्षा है जो आत्म-विजय की ओर बढ़ने का मार्ग सिखाती है । शिक्षा का सामान्य अर्थ सीखना सिखाना है । मानव विकास का मूल साधन शिक्षा है। इसके द्वारा जन्म-जात शक्तियों का विकास कर, एक ओर लौकिक ज्ञान व कला-कौशल में वृद्धि कर आजीविका के साधन जुटाने में दक्षता प्राप्त की जाती है तो दूसरी ओर अपने व्यवहार में परिष्कार और परिवर्तन लाकर पाशविक वृत्तियों से ऊपर उठते हुए, सभ्य व सुसंस्कृत बन सच्ची मानवता की प्रतिष्ठा की जाती है । इस आधार पर शिक्षा के मुख्यतः दो रूप हमारे समक्ष उभरते हैं: :- १. जीवन निर्वाहकारी शिक्षा और २. जीवन-निर्माणकारी शिक्षा । Jain Education International जीवननिर्वाह के लिये आवश्यक साधन जुटाना और उनके प्रयोग में प्रावीण्य प्राप्त करना शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य होते हुए भी शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य सुषुप्त आत्म-शक्तियों को जागृत कर, आत्मा पर पड़े हुए समस्त विकारों को हटाकर, उसकी अनन्त शक्तियों का पूर्ण विकास करना है । सच्ची शिक्षा व्यक्ति को बन्धनों मुक्त कर उसमें ऐसी क्षमता और सामर्थ्य विकसित करती है कि वह दूसरों को बन्धन से मुक्त करने में सहायक बन सके । “सा विद्या या विमुक्तये" के मूल में यही उद्देश्य निहित है । ५८ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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