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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने संन्यत्त होने से पूर्व असि, मसि, कृषि की शिक्षा देकर लोगों को आत्म-निर्भर और स्वावलम्बी बनाया। विविध प्रकार के कला-कौशल को जीवन में प्रतिष्ठापित किया पर उनका अन्तिम लक्ष्य आत्म-संयम के मार्ग पर बढ़कर सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त होना ही रहा। सभ्यता के विकास के साथ-साथ जीवन अधिक जटिल बनता गया और शिक्षा जीवन-निर्माण के मूल लक्ष्य से हटकर जीवन-निर्वाह के साधन जुटाने तक सीमित रह गई । आत्मानुशासन को सुदृढ़ बनाने की बजाय, बाहरी प्रशासन में सहयोग करने वाली मशीनरी तैयार करना मात्र उसका उद्देश्य रह गया। रचनात्मक शक्तियों के सिंचन एवं संवर्धन के बजाय, सूचनात्मक ज्ञान का संग्रह और संचयन उसका मुख्य लक्ष्य बन गया। वह जीवन जीने की कला से हटकर आजीविका के जंजाल में फंस गई। फलस्वरूप न तो वह बाह्य प्रकृति में सन्तुलन स्थापित करने में समर्थ हो पा रही है और न अन्तःप्रकृति के बिखरे सूत्रों को जोड़ सकी है। शिक्षा के लिये अंग्रेजी में शब्द है- "Education" यह शब्द लेटिन भाषा के एज्यूकेटम (Educatum) से बना है। एज्यू केटम में दो शब्द हैं । ए (इ) तथा डूको (Duco) "ए" का अर्थ है अन्दर से और "डको" का अर्थ है आगे बढ़ना। इस प्रकार एज्यूकेशन का अर्थ हुआ-अन्दर से आगे बढ़ना । अन्दर से आगे बढ़ने की यह कला और शक्ति ही मनुष्य को पशु जगत् से ऊपर उठाती है। मनुष्य के बाहरी शरीर के बढ़ाव की एक सीमा है। उस सीमा के बाद मनुष्य का शारीरिक विकास रुक जाता है। पर मनुष्य के अन्दर से आगे बढ़ने की अनन्त सम्भावनाएँ हैं। इन सम्भावनाओं को पूर्ण करने का सामर्थ्य शिक्षा के द्वारा अजित किया जाता है। पर आज शिक्षा के बहिर्मुखी हो जाने से अन्तर्मखी विकास की प्रक्रिया रुक-सी गई है। जैन शिक्षा मनुष्य की अनन्त शान, दर्शन, चारित्र और बल के विकास की सम्भावनाओं को पूर्णता प्रदान करने पर जोर देती है। ज्ञानसम्पन्न होना मानव जीवन की सार्थकता की पहली शर्त है । "उत्तराध्ययन सूत्र" के २६वें अध्ययन "सम्यक्त्व पराक्रम" में इन्द्रभूति गौतम स्वामी भगवान महावीर से पूछते हैं-भगवन् ! ज्ञान सम्पन्न होने से जीवात्मा को क्या लाभ होता है ? नाण सम्पन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयई ? उत्तर में भगवान महावीर फरमाते हैं-ज्ञान-सम्पन्न होने से जीवात्मा सब पदार्थों के यथार्थ भाव को जान सकती है और चतुर्गति रूप संसार-अटवी में भटकती नहीं : नाणसम्पन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगम जणयइ । नाण संपन्ने ण जीवे चउरन्ते संसार कान्तारे न विणस्सइ ।। जैसे सूत्र (सूत-डोरा) सहित सूई गुम नहीं होती, उसी प्रकार सूत्र (आगम-ज्ञान-आत्म-ज्ञान) से युक्त ज्ञानी पुरुष संसार में भटकता नहीं। जहा सुई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सई ॥ --उत्तराध्ययन २६/५६ "स्थानांग" सूत्र के पांचवें स्थान में पाँच कारणों से श्रु त ज्ञान अर्थात् शास्त्र की शिक्षा आवश्यक बताई है-पंचहि ठाणेहि सुत्तं सिक्खेज्जा तं जहा-नाणट्ठयाए, सणट्ठयाए, चारित्तट्ठयाए, पुग्गह विमोयणट्ठयाए, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामी ति कट्टु । (४६८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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