SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड १ | जीवन ज्योति ४३ की वात्सल्यपूर्ण स्रोतस्विनी प्रवाहित रही । प्रत्येक समारोह में वे चरितनायिकाजी को सादर आमन्त्रित करते और अपने व्याख्यान में अपने ही मुख से चरितनायिकाजी की विद्वत्ता और सद्गुणों की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते । सुनकर लोग चकित रह जाते, सोचते - पूज्यश्री की कितनी उदारता । तपागच्छ में जहाँ श्रावक लोग साध्वी का व्याख्यान भी सुनना पसन्द नहीं करते, वहाँ ये आचार्य होकर भी अन्य गच्छ की साध्वी की प्रशंसा अपने मुख से करते हैं । वस्तुतः यह प्रशंसा चरितनायिकाजी के विशिष्ट निर्दोष श्रमणाचार की थी और थी उदारता, सहृदयता, सरलता, प्रकांड विद्वत्ता आदि अलभ्य गुणों की जो इनमें साकार हैं । इसी कारण आपका श्रमणी मंडल अत्यधिक समादृत हुआ । प्रत्येक संक्रान्ति समारोह पर चरितनायिकाजी की उपस्थिति अनिवार्य थी । एक बार कोचरों के चौक में विराट् रूप में संक्रान्ति महोत्सव का आयोजन था और उसी के साथ था योगोद्वाहक मुनिजनों का पदवी महोत्सव तथा उपधान तप के आराधकों का माल महोत्सव । तीन आयोजन एक साथ होने से विशाल जनसमूह तो एकत्र होना ही था । २०-२५ बसें बाहर से आयीं, इतने ही खुले टिकट आये थे । जयपुर से एक बस पंजाबी समुदाय की आई थी और जयपुर से चरितनायिकाजी की मातुश्री तथा सेठ कल्याणमलजी गोलेच्छा ( चरितनायिका के संसारपक्षीय पति) का भी आगमन हुआ था | बीकानेर के लोग तो थे ही । चालीस हजार श्रोता संख्या हो गई थी । इस विशाल जन - मेदिनी में चरितनायिकाजी ने जो जोशीला, प्रभावपूर्ण, धारा प्रवाह भाषण दिया तो सभी श्रोता दाँतों तले अंगुली दबा गये । समझ ही नहीं पाये कि यह साध्वी है अथवा सदेह सरस्वती । कैसी सुरीलो आवाज है मानो सरस्वती की वीगा ही झंकृत हो रही हो, एक-एक शब्द सरस है, गजब का आकर्षण और प्रेषणीयता है । भाषण क्या है ? चमत्कार है, जादू है । इस भाषण को सुनकर कल्याणमलजी के नेत्र भी हर्षातिरेक से भर आये और बीकानेर ही नहीं आस-पास के सभी क्षेत्रों में चरितनायिकाजी ख्याति प्रसारित हो गई । तेरापंथ के विद्वानमुनि शतावधानी श्रीराजकरणजी व पार्श्वचन्द्र गच्छ के विद्वान मुनि श्री सुरेश चन्द्रजी म० के साथ भी आपके कई भाषण हुए । सर्वत्र आपकी वक्तृत्व कला की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई । चरितनायिकाजी की विशाल हृदयता चातुर्मास के पश्चात एक बार अपनी शिष्या समुदाय के साथ भीनासर पधारीं । वहाँ पूजा महोत्सव था । उसमें सम्मिलित होने के लिए पू० समुद्रसूरिजी भी अपने शिष्य - शिव्या - मंडल के साथ पधारे थे । पूजा के साथ तपगच्छ संघ की ओर से स्वाधमिवात्सल्य का भी आयोजन था । पूजा समाप्ति पर आप जैसे उठकर जाने लगे कि श्रावकों ने बहरने का अत्यधिक आग्रह किया। आप विचार में पड़ गयीं कि पात्रे तो लाये ही नहीं, बहरें कैसे ? आपकी त्वरित बुद्धि ने तुरन्त उपाय सोच लिया । तपागच्छीय प्रवीणश्री जी म. सा. आदि से पात्रे लिए और उसके साथ बहरने गईं । आपश्री के हाथ में लाल पात्रे देखे तो पहले तो लोग चकित हुए और फिर आपकी विशालहृदयता का अनुभव करके आनन्दित हो उठे । बहरा हुआ आहार तपागच्छीय साध्वीजी के साथ आपने खाया । आपके स्नेह से सभी भूत / आल्हादित हो गये । बीकानेर का यह ऐतिहासिक चातुर्मास आज भी लोगों की स्मृति में ताजा है और वहाँ के लोग अब भी दर्शनार्थ आते रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy