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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ मन्दिरों का बँटवारा परस्पर शांतिपूर्वक कर लिया था। तदनुसार प्राचीन मन्दिरादि श्वे के पास रहे । दि० ने गाँव में नवीन धर्मशाला मंदिरादि निर्माण करा लिए । सं० १८१६ से १८२६ तक पहाड़ों के अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार हुगली निवासी गाँधी बुलाकी दास के पुत्र माणकचन्द ने करवाये जिनके लेख चरण पादुकादि पर खुदे हुए हैं । सं० १५२४ में वैभारगिरि पर धन्ना शालिभद्र की मूर्तियाँ श्री कमलसंयमोपाध्याय द्वारा प्रतिष्ठित हैं। सं० १८३० में जगतसेठ फतैचन्द्र गेलड़ा के पौत्र जगत सेठ महताबराय की पत्नी शृंगारदेवी ने ग्यारह गणधर पादुका वैभारगिरि पर विराजमान की । सं० १८७४ में जिनहर्षसूरि प्रतिष्ठित मंदिरों का जीर्णोद्धार सं० १९३८ में राय धनपतसिंह जी ने कराया था। सं० १६०० में लखनऊ वाले श्रीपूज्य जिननन्दीवर्द्धन सूरि जी के समय मुनि कीयुदय ने कई चरणों की प्रतिष्ठा करवाई। श्रीजिनमहेन्द्रसूरिजी द्वार । प्रतिष्ठित गौतम स्वामी की ढूंक की प्रतिष्ठा सं० १६११ में हुई थी । सं० १९८५ में श्री जिनचारित्रसूरिजी द्वारा दादा जिनदत्त सूरि की चरण प्रतिष्ठा की है। राजगृह में जो प्राचीनतम मन्दिर थे वे ध्वस्त हो गये। तेरहवीं, चौदहवीं, पन्द्रहवीं शती में खरतरगच्छीय प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ अब एक भी प्राप्त नहीं हैं। मंदिर जहाँ पहाड़ों पर सैकड़ों थे, अब गिनती के रह गये । अनेक प्रतिमाएँ, अभिलेख भूगर्भ में सम गये । इस शताब्दी में तो मूत्ति चोरों के कारनामे भी कम नहीं हैं। अब राजगृह गाँव में धर्मशाला के पास नया विशाल शिखरबद्ध मंदिर एवं पृष्ठ भाग में गुरु मंदिर बन गया है । जिनालय में प्राचीन प्रतिमा प्रतिष्ठित करने की बात थी पर सर्वानुमति बिना शीघ्रतावश नवीन प्रतिमा के अग्रभाग में प्राचीन प्रतिमा विराजमानकर आशातना का कारण बन गया है। अब जो हो गया सो हो गया, आशातना मिटाकर सही मार्ग अपनाने में ही श्रेयस् है। नालंदा में द्वितल मंदिर और दादाजी का मंदिर प्राचीन है। जहाँ १७ मन्दिर थे अब एक ही रहा है । धर्मशाला टूटी-फूटी हालत में समृद्ध जैन समाज के लिए लज्जास्पद है । मन्दिर में प्राचीनतम प्रतिमाएँ अवश्य ही आह्लादकारी हैं । पर जिनालय गाँव में पक्की सड़कहीन स्थान में है अन्यथा नालंदा जैसे विश्वविथ त स्थान में आये हुए निकटवर्ती स्थान में सैकड़ों व्यक्ति दर्शनार्थ आ सकते हैं । जैन समाज अपनी धर्मशाला के लोगों को दर्शन कराने में ही भलाई समझकर प्रचार से मुंह मोड़े बैठा है। पावापुरी-भगवान महावीर की निर्वाण भूमि पावापुरी महातीर्थ पटना जिले में सदा से प्रसिद्ध रहा है। यहाँ का गाँव मन्दिर जो हस्तिपाल राजा की जीर्ण शुल्कशाला था, भगवान ने अन्तिम चातुर्मास किया और कार्तिक बदी १५ की रात्रि में पिछले प्रहर में निर्वाण को प्राप्त हुए। अतः इस स्थान में १६ प्रहर तक देशना देते हुए सिद्धगति को गये। भाव-उद्योत का विलय होने से लोक में द्रव्य-उद्योत रूप दोवाली पर्व प्रसिद्ध हुआ। तभी से दीवाली पर पावापुरी तीर्थ में दीपावाली का मेला लगता है। भगवान का प्रथम देशना स्थल खेतों के बीच महसेतवन में था जहाँ स्तूप और प्राचीन कुआ था। लगभग ३५ वर्ष पूर्व जैनाचार्य श्री विजयरामचन्द्रसूरिजी के उपदेश से भण्डार से जमीन ग्रहणकर निर्माण के पश्चात् पावापुरी भण्डार की पेढ़ी को सौंप देने की शर्त से अधिगृहीत की थी। वहाँ विशाल संगमरमर का कलापूर्ण मन्दिर व धर्मशाला एवं जिनालय निर्मित हो गया है। भगवान महावीर की निर्वाण भूमि गाँव मन्दिर भी जीर्णोद्धारित होकर अनुयोगाचार्य श्री कांति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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