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________________ खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा इस महत्वपूर्ण प्रशस्ति में दिल्लीश्वर फीरोजशाह के मण्डलेश्वर मलिकवय नामक मगधशासक के सेवक से इस पुण्यकार्य में बड़ा साहाय्य मिलने का उल्लेख है। सं० १४३१ में अयोध्या स्थित श्री लोकहिताचार्य के प्रति अणहिल्लपुर पत्तन से श्री जिनोदयसूरि प्रेषित 'विज्ञप्ति महालेख' से विदित होता है कि श्री लोकहिताचार्य जी इतःपूर्व मन्त्रीदलीय वंशोद्भुत ठ० चन्द्रांगज सुश्रावक राजदेव तथा इतर मन्त्रिदलीय समुदाय के निवेदन से बिहार व राजगृह में विचरे व विपूलाचल पर श्रावकों द्वारा नव निर्मापित जिन प्रासादों को वन्दन किया था। सूरिजी वहाँ से ब्राह्मण कुण्ड व क्षत्रियकुण्ड जाकर पुनः बिहार होते हुए राजगृह पधारे और विपुलाचल व वैभारगिरि पर बड़े समारोह से जिनबिम्बादि की प्रतिष्ठा की थी। पन्द्रहवीं शताब्दी में विज्ञप्ति त्रिवेणी रचयिता प्रकाण्ड विद्वान श्री जयसागरोपाध्यायजी भी राजगृह और उद्दड़ बिहार में विचरे थे । (देखिए ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० ४०) । सं० १५०४ में जिनवर्द्धनसूरि, जिन्होंने अपनी तीर्थयात्रा में राजगृह यात्रा का विशद वर्णन किया है-के प्रशिष्य जिनसागरसूरिजी की आज्ञा से यहाँ अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवायी थी। उस समय की प्रतिष्ठित कितनी ही प्रतिमाएँ वैभारगिरि के खण्डहर, स्वर्णगिरि, राजगृह, काकन्दी और नालन्दा के मन्दिरों में अब भी पूज्यमान हैं। ___ सं० १५२४ में श्री जिनभद्रसूरि पट्ट प्रभावक श्री जिनचन्द्रसूरिजी की आज्ञा से उत्तराध्ययन वत्तिकार श्री कमलसंयमोपाध्यायजी ने श्रीमाल श्रावक छीतमल्ल द्वारा निर्मापित नैभारगिरि शिखरस्थ धन्ना-शालिभद्रमूर्ति, एकादश गणधर चरण पादुका तथा स्वगुरु श्री जिनभद्रसूरिजी के चरणों की प्रतिष्ठा की थी । सं० १५२५ में लिखित आवश्यकसूत्र तथा दशवकालिक टीका की प्रशस्तियों में भी राजगृह और क्षत्रियकुण्ड यात्रादि का वर्णन पाया जाता है। सं० १५६५ में कवि हंस सोम ने अपनी तीर्थयात्रा में राजगृह के वैभारगिरि पर मुनिसुव्रत । प्रभति २४ प्रासादों में ७०० जिनबिम्ब और अन्य सभी स्थानों पर पहाड़ों के मन्दिरों का वर्णन किया है। सतरहवीं शती के कवि विजयसागर ने पाँचों पहाड़ों पर १५० मन्दिर व ३०३ जिनबिम्ब तथा ११ गणधर आदि अन्य उल्लेखनीय वर्णन किये हैं । शीलविजयजी ने सं० १७४६ में तीर्थमाला में सभी दर्शनीय स्थानों का वर्णन किया है। सं० १७५० में सौभाग्यविजयजी ने ८१ जिनालय की संख्या लिखी है । श्री क्षमाकल्याणोपाध्यायजी इस देश से विचरे और उनके गुरु श्री अमृतधर्मजी ने अतिमुक्तक मुनि की विपुलाचल पर प्रतिष्ठा की थी। श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने सं० १८३४-३५-३६ में समस्त तीर्थों की यात्रा के साथ राजगृह यात्रा कर राजा बच्छराज नाहटा के आग्रह से लखनऊ में तीन चातुर्मास किये थे। दानवीर द्वितीय जगडूशाह के पिता वर्द्धमान और उनके भ्राता पद्मसिंह के चरित्र में अचल गच्छ के अचलगच्छाचार्य अमरसागरसूरिजी ने सं० १६६१ में वें सर्ग में पूरब देश के समस्त तीर्थों की यात्रा कर लाखों रुपया व्यय करने का उल्लेख किया है। सं० १७०७ में बिहार के खरतरगच्छीय महत्तियाण चोपड़ा तुलसीदास के पुत्र संग्राम व गोवर्द्धन ने विपुलगिरि पर वा० कल्याणकीर्ति के उपदेश से जीर्णोद्धार कराया जिसका अभिलेख दगिम्बराधिकृत जिनालय के नव ग्रह दशदिग्पाल पट्टिका पर खुदा है । तीन वर्ष मुकदमाबाजी के पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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