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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ पावापुरी का शिलालेख स्पष्ट बतलाता है कि पटना आदि में ओसवाल संघ जाने से पूर्व महत्तियाण संघ ही तीर्थ में निर्माण-जीर्णोद्धार आदि कराता रहा है। क्षत्रियकुण्ड, काकन्दी, नालंदा, राजगृह के शिलालेख स्पष्ट सूचना देते हैं। राजगृह गाँव के मन्दिर में जिनभद्रसूरिजी के प्राचीन चरण जयसागरोपाध्याय प्रतिष्ठित हैं । मूलनायक प्रतिमा जिनदास श्रावक के घिसे हुए अभिलेख से महत्तियाण जाति का कर्तृत्व सूचक है । यह जाति ओसवाल, श्रीमाल व अग्रवालों में मिल गई मालूम होती है। मारवाड़, गुजरात व बम्बई से दक्षिण भारत में महाराष्ट्र में जाकर बस जाने के कुछ प्रमाण मिले, मैंने मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि चरित्र में इस बात का उल्लेख किया है । राजगृह-जैन दृष्टिकोण से राजगृह बिहार प्रान्त का अतिप्राचीन और महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान महावीर १६वें भव में विशाखनन्दी और १८वें भव में त्रिपृष्ठ वासुदेव यहीं हुए थे। बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत स्वामी के लाखों वर्ष पूर्व यहीं चार कल्याणक हुए थे । भगवान महावीर के १४ चातुर्मास, गणधरों, निर्वाणभूमि तथा जम्बूस्वामी, शालिभद्र, कयवन्ना, मेतार्य, पूणिया श्रावक, अभयकुमार आदि अनेक महापुरुषों से सम्बन्धित यह तीर्थस्थान है। महाराजा श्रेणिक जो आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभ होंगे, यहीं के सम्राट और भगवान महावोर से पारिवारिक सम्बन्ध के साथ उनके परम भक्त थे। महाराजा कोणिक के राजधानी चम्पानगर कर देने पर राजगृह उजड़ जाने पर भी उसके महत्व में कोई कमी नहीं आई। यहाँ की गुफाओं में, प्रतिमाओं पर उत्कीणित प्राचीन लिपि अपना सम्बन्ध आज तक अनेक साक्ष्य लुप्त हो जाने, नष्ट हो जाने पर भी संजोये हुए हैं । उपनगर नालन्दापाड़ा और बिहार शरीफ के अधिवासी जैन बस्ती यहाँ से बराबर सम्बन्धित रही। प्राचीन तीर्थमालाएँ राजगृह और उसके पाँचों पहाड़ों का वर्णन अत्यन्त गौरव के साथ कीत्ति गाथाओं का उद्घोष करती है। सोन भंडार का पूर्वगप्तकाल का अभिलेख गुफा में अर्हत प्रतिमा प्रतिष्ठित करने की गौरव गाथा गाती है तथा वहाँ की कलापूर्ण अद्वितीय जिन प्रतिमाएँ जैन संस्कृति और कला की अमूल्य निधि है । युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार कलिकाल केवली श्री जिनचन्द्रसूरिजी की आज्ञा से वा. राजशेखर गणि ने सं० १३५२ में राजगृ हनालंदा, क्षत्रियकुण्डादि की यात्रा करने के राजगृह के बाद निकटवर्ती उद्दड़ बिहार (बिहार शरीफ) में चातुर्मास किया था। वहाँ नन्दि महोत्सव, मालारोपण आदि धार्मिक अनुष्ठान हुए। सं० १३६४ में राजशेखर गणि को श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने आचार्य पद से अलंकृत किया था। सं० १३८३ में जालोर में मिती फाल्गुन वदी ६ को श्री जिनकुशलसूरिजी महाराज ने मन्त्रिदलीय ठ० प्रतापसिंह के पुत्र ठ० अचलसिंह कारित वैभारगिरि के चुतुर्विशति जिनालय के मूलनायक योग्य श्री महावीर स्वामी आदि के अनेक पाषाण व धातुमय बिम्ब, गुरुमूत्तियाँ व अधिष्ठायकों की प्रतिष्ठा की थी। __सं० १४१२ की काव्यमय ३३ पंक्तियों वाली विस्तृत प्रशस्ति बिहार निवासी महत्तियाण ठ० मण्डन के वंशज वत्सराज और देवराज ने राजगृह के विपुलाचल पर श्री पार्श्वनाथ स्वामी का ध्वजदण्ड मण्डित विशाल जिनालय निर्माण करवाकर आषाढ़ बदी ६ को खरतरगच्छ नायक श्री जिनलब्धिसूरिजी के पट्ट प्रभाकर श्री जिनउदयसूरिजी की आज्ञा से उपाध्याय श्रीभुवनहित गणि के पास प्रतिष्ठा करवायी थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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