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________________ खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा पर्याप्त प्रसिद्ध हैं। अभी वहाँ जीर्णोद्धार, धर्मशाला, अस्पताल आदि निर्माण कर प्रतिवर्ष नेत्र शिविर आदि द्वारा बहुत सेवाएँ दी जा रही हैं। कानपुर का मन्दिर कांच जटित मीने के काम का सुप्रसिद्ध है । वाराणसी तो महातीर्थ है । यहाँ श्रीहीरधर्मोपध्याय ने जहाँ काशी में मन्दिर नहीं बनाने देते थे, वहाँ शास्त्रार्थ में पण्डितों पर राजसभा में बिजय पाकर कई मन्दिर बनवाये । रामघाट उपाश्रय में संलग्न त्रितल जिनालय में बहुत सी प्रतिमाएँ तथा ज्ञान भण्डार है । यहीं के विद्वान और त्यागी परम्परा में बालचन्द्रसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, हीरचन्द्रसूरिजी की बहुत बड़ी सेवाएँ हैं । धर्मनाथ भगवान की जन्मभूमि रत्नपुरी, अयोध्या, भेलूपुर मदैनीघाट तथा सिंहपुरी चन्द्रावती-तीर्थों की व्यवस्था भी ये ही गुरुजन निस्वार्थ सेवा देते थे। मिर्जापुर में दो मन्दिर एवं दादाबाड़ी प्रसिद्ध है । खरतरगच्छीय महानुभावों की ही निर्मापित है। मिथिलातीर्थ विच्छेद होने का कारण यात्रीगणों के आवागमन की कमी के कारण ही था । भागलपुर के मन्दिर में चरण, मूर्तियाँ वहां से आये हुए हैं जो श्रीजिनहर्षसूरि द्वारा प्रतिष्ठित हैं । अभी नमिनाथ स्वामी व मलिल्नाथ स्वामी के चार-चार कल्याण की पवित्रभूमि होने से निकटस्थ नेपाल की राज्य सीमा में दिगम्बर भाइयों ने तीर्थ स्थापन हेतु भूमि प्राप्त की है । पास ही श्वेताम्बर तीर्थ स्थापन होना अत्यावश्यक है। जौनपुर जिसका जेउणापुर प्राकृत रूप का संस्कृत पर्याय यमुनापुर है। जैनों की अच्छी बस्ती तिमंजिला मंदिर था जो बाद में मस्जिद बन गया है। जिनवर्द्धनमूरिजी के समय ५२ संघपतियों का विशाल तीर्थयात्री संघ निकला था। ओसवाल श्रीमाल और मत्तियाण खरतरसंघ का केन्द्र था। चैत्यवास की जड़े हिलने पर सुविहित श्रमणवर्ग भारत के विभिन्न क्षेत्रों को संभालने के लिए विचरने लगा । खरतर विरुद प्राप्ति तो गुजरात जाने पर हुई पर पहले से ही उनका विहार उत्तरप्रदेश और बिहार प्रान्त में था ही । यही कारण है कि खरतरगच्छ की शाखाएँ वहाँ जब तक कायम रहीं क्षेत्रों को सम्भालती रहीं। बिहार की महतियाण (मन्त्री दलोय) जाति अपो को सर्व प्राचीन भगवान ऋषभदेव के पूत्र भरत चक्रवर्ती के मंत्री श्रीदल संतानीय मानती हुई जैन धर्म का पालन खरतरगच्छ के पूर्वाचार्यों के सान्निध्य में करती थी । मणिधारी श्री जिनचन्द्रसरिजी ने जब उनका शैथिल्य दूरकर चुस्त जैन बनाये तो उनकी “महत्तियाणड़ा दुई नमइ, कइ जिणकइ जिणचन्द' अथवा 'जिन नमामि वा जिनचंद्रगुरु नमामि" उद्घोष प्रसिद्ध हो गया । जिनवल्लभसूरि के शिष्य जिनशेखर सूरि रुद्रपल्ली (रुदोली) के थे अतः उन्होंने भी उत्तरप्रदेश तथा पंजाब के क्षेत्रों को संभाला । दूगड़, नाहर आदि अनेक गोत्रों के अभिलेख उन्हीं से सम्बन्धित थे पर उनका नामशेष हो जाने पर अन्य गच्छों का उधर वर्चस्व छा गया। श्री जिनेश्वरसरि द्वितीय ने श्रीजिनसिंहसूरि को वह क्षेत्र सौंपा । अयोध्या, जौनपुर आदि में उनके चातुर्मास होना ग्रन्थ रचना आदि से सिद्ध है । जब वह शाखा कुछ निर्बल पड़ गई तो श्री जिनराजसूरि के पट्टधर श्री जिनरंग अनेक क्षेत्रों को सम्भालने लगे। नालंदा, राजगृह आदि उनके प्रभाव क्षेत्र थे । जालोर से प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित होकर भेजी गईं। साधुओं के चातुर्मास, उपधान तप आदि नालंदा में हुए जिसके उल्लेख मिलते हैं। बिहार शरीफ का महत्तियाण मुहल्ला के लिए तो पावापुरी गाँव मन्दिर का शिलालेख डंके की चोट उस जाति के बीसों गोत्रों के निवास का विवरण देता है। वहाँ नालंदा में १७ मन्दिर थे । राजगृह नगर के पाँचों पहाड़ों में ८१ से ऊपर जिनालय थे। विपुलाचल और वैभारगिरि के उल्लेख व सं० १४१२ का शिलालेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एतद्विषयक सूचना देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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