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________________ १५८ प्राकृत साहित्य में वर्णित शील-सुरक्षा के उपाय : डॉ० हुकमचन्द जैन एकान्त अवसर एवं राजा की अनुपस्थिति देखकर, रनिवास में प्रवेश कर वह रानी से काम-याचना करता है । रानी पहले उसे उद्बोधन देती है । तब भी वह काम के लिए लपकता है । तब शिवा रानी में अद्भुत शक्ति एवं साहस का संचार हो जाता है। वह बिजली की तरह त्वरितगति से कुछ चरण पीछे हटी एवं प्रलयंकर मेघों के समान गर्जना करती हुई उस मन्त्री पर बरस पड़ी। वह बोली-कामी-कुत्ते ! वहीं ठहर जा । खबरदार जो एक चरण भी आगे बढ़ा । तू तो है ही क्या ? इन्द्र स्वयं भी प्रयत्न करे तो भी मुझे शील से खण्डित नहीं कर सकता । अवन्ती नरेश का मित्र होने का तू दावा करता है और उन्हीं से यह भयंकर छल करते हुए तुझे लज्जा नहीं आती। ऐसे चण्डी रूप को देखकर वह मन्त्री डरकर भाग खड़ा होता है और शिवारानी अपने शील की रक्षा कर लेती है ।। (३) रूप परिवर्तन द्वारा-नारी विचित्र औषधि प्रयोग एवं रूप परिवर्तन से भी अपने शील की सुरक्षा कर लेती है। ऐसी ही एक कथा रूपवती तारा की है । चन्द्र एवं उसकी पत्नी तारा को घर छोड़ने के लिए कहा गया। वे ताम्रलिप्ती नगर में एक माली के घर रहने लगे । तारा को एक दिन परिव्राजिका के दर्शन हुए। परिवाजिका ने उसे एक गोली दी जिसके प्रभाव से स्त्री पुरुष और पुरुष स्त्री बन जाय । एक बार वहाँ का राजा तारा पर मोहित हो गया और कहने लगा-प्रिये ! तेरे विरह की अग्नि से मेरा अंग-अंग झुलस रहा है, अपने संगम-सुख से उसे शान्त कर । ऐसा कहकर राजा ने ज्योंही उसे आलिंगनपाश में बाँधना चाहा, उसने तुरन्त दूर होकर कहा-महाराज ! यह क्या ? राजा अपने सामने एक पुरुष को खड़ा देखकर लज्जित हो जाता है और वह रूप-परिवर्तन द्वारा अपने शील की रक्षा करती है। नारियाँ अपने को असहाय अनाथ समझकर, कोई बहाना बनाकर, नाटकीय ढंग से अपनी शील रक्षा करती हुई देखी गयी हैं । (४) पागलपन के अभिनय द्वारा-नर्मदासुन्दरी उसके चाचा वीरदास की अंगूठी के बहाने बुलाकर कैद कर ली जाती है और वेश्या बनाने के लिए उसे कितनी ही पीड़ाएँ सहनी पड़ती हैं किन्तु वह वेश्या नहीं बनती। तब उसे रसोईघर में काम मिल जाता है। लेकिन शील खण्डन का संकट पुनः खड़ा हो जाता है। अत्यन्त रूपवती होने के कारण राजा उसे बहुत चाहने लगता है। राजा दण्डरक्षक को भेजकर नर्मदासुन्दरी को बुलाता है। तब रास्ते में ही पानी की एक बावड़ी देखकर नर्मदा को पालकी से उतार दिया। लेकिन बावड़ी के पास पहुँचते ही वह फिसल कर गिर पड़ती है । उसके बाद वह अट्टहासपूर्वक चिल्लाकर कहने लगी-क्या राजा ने मेरे लिए यही आभूषण भेजा है ? उसने अपने शरीर पर कीचड़ लपेट लिया । दण्डरक्षक ने कहा-अरी स्वामिनी ! यह क्या ? वह उसकी ओर बढ़ा । नर्मदा ने उत्तर दिया-अरे तू राजा की रानी को अपनी रानी बनाना चाहता है ? यह कहकर दण्ड रक्षक के मुंह पर कीचड़ फेंकने लगी । भूतनी-भूतनी का शोर मच गया। नर्मदा नेत्रों को फाड़, जीभ निकाल, गीदड़ की १. (क) शास्त्री, राजेन्द्र मुनि "सत्य-शील की अमर साधिकाएँ", उदयपुर १६७७, पृ० १३० (ख) आवश्यक नियुक्ति, गा० १२८४ पृ० १३० २. (अ) जैन जगदीश चन्द्र, रमणी के रूप, वाराणसी, पृ० २१-२५ (ब) जैन, जगदीशचन्द्र, "नारी के विविध रूप" वाराणसी, १६७८, पृ० ६० (स) वसुदेव हिण्डी, (संघदासगणि), भावनगर, २३३ (द) जैन, जगदीश चन्द्र, प्राकृत जैन कथा साहित्य, अहमदाबाद, १६७१, पृ० ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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