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________________ खरतरगच्छ की संविग्न साधु परम्परा का परिचय : मंजुल विनयसागर जैन की थी । श्री जिनहरिसागरसूरि जी म० का स्वर्गवास हो जाने के बाद संवत् २००६ माघ सुदि पाँचम को प्रतापगढ़ में खरतरगच्छ संघ द्वारा आपको आचार्य पद पर स्थापित किया गया था। संवत् २०११ में अजमेर में आपकी ही अध्यक्षता में दादा श्री जिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी समारोह के समय साधु सम्मेलन हुआ था । आपकी ही प्रेरणा से अखिल भारतीय जिनदत्त सूरि सेवा संघ की स्थापना हुई । आपने अनेकों को दीक्षा प्रदान की, प्रतिष्ठायें, अन्जनशलाका करवाईं। तीर्थ यात्रा संघ आदि निकलवाये । यात्रा संघों में प्रमुख हैं-फलौदी से जैसलमेर, इन्दौर से माण्डवगढ़, माण्डवी से भद्र श्वर तीर्थ और माण्डवी से सुथरी तीर्थ । संवत् २०१६ वैशाख सुदि छठ को सिद्धाचल तीर्थ पर दादाजी की टोंक पर नवनिर्मित देहरियों में आप ही ने प्राचीन चरणों की स्थापना करवाई थी । संवत् २०१६ का चातुर्मास आपका पालीताणा में ही हआ। उस समय वहाँ खरतरगच्छ के २६ मुनि एवं ३२ साध्वियाँ विराजमान थीं। इसी वर्ष जिनदत्तसूरि सेवा संघ का द्वितीय अधिवेशन भी हुआ । संवत् २०१७ पौष सुदि दशम को आपका पालीताणा में ही स्वर्गवास हुआ। (१३) जिनकवीन्द्रसागर सूरि आपका जन्म पालनपुर में संवत् १९६४ चैत्र सुदि तेरस के दिन हुआ था। आपके पिता थे निहालचन्द शाह और माता थी बब्बूबाई । दस वर्ष की अवस्था में आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। साध्वी श्री दयाश्रीजी की प्रेरणा से अध्ययन हेतु आप हरिसागरजी म० के पास कोटा आ गये । इनका हृदय वैराग्यवासित होने के कारण श्री हरिसागरजी म० ने संवत् १६७६ फाल्गुन वदि पाँचम को जयपुर में दीक्षा प्रदान की और दीक्षा नाम रखा मुनि कवीन्द्रसागर । आप संस्कृत साहित्य के दिग्गज विद्वान् तो थे ही, साथ ही प्रतिभासम्पन्न आशु कवि भी थे। आपकी आवाज भी बुलन्द थी और ववतृत्व शैली भी अनोखी थी। आपके द्वारा संस्कृत या हिन्दी भाषा में कोई महाकाव्य या विशिष्ट बड़ी कृति तो प्राप्त नहीं है, किन्तु संस्कृत और हिन्दी भाषा में स्तोत्र, चैत्यवन्दन, स्तुतियाँ और भजन आदि शताधिक संख्या में प्राप्त हैं। आपके द्वारा निर्मित प्रमुख कृतियाँ हैं-रत्नत्रय पूजा, पार्श्वनाथ पंच कल्याणक पूजा, महावीर पूजा, चौंसठ प्रकारी पूजा, चैत्री पूर्णिमा व कार्तिकी पूर्णिमा विधि, उपधान तप, बीस स्थानक तप, वर्षी तप, छम्मासी तप आदि की देववन्दन विधि । चारों दादा साहब की पूजाएँ एवं पचासों स्तवन इन्होंने गुरुभक्तिवश अपने पूज्य गुरुदेव के नाम से प्रकट की हैं। आप साधनाप्रिय भी थे और नगर के बाहर दादाबाड़ियों आदि में जाकर साधना भी किया करते थे। आपकी ही प्रेरणा से पालीताणा में 'हरि विहार' की स्थापना हुई। जिनानन्दसागरसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् २०१७ चैत्र वदि सातम के दिन खरतरगच्छ संघ ने आपको आचार्य पद से विभूषित कर जिनकवीन्द्रसागरसूरि नाम रखा। यह महोत्सव अहमदाबाद में सम्पन्न हुआ था। किन्तु, संघ का दुर्भाग्य था कि वे अधिक समय तक संघ की सेवा न कर सके । सम्वत् २०१७ फाल्गुन सुदि पांचम को अचानक हृदय गति बन्द हो जाने से बूटा में आपका स्वर्गवारा हो गया था। (इनका विस्तृत जीवन वर्णन पृथक् लेख में प्रकाशित है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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