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प्रवर्तन सिंह श्रीजी के साध्वी समुदाय का परिचय : साध्वी हेमप्रभाश्रीजी
देवीतुल्या देवश्रीजी म. सा.
वास्तव में आप देवीस्वरूपा थीं । प्रकृति से गम्भीर, शान्त एवं शुचिमना थीं । आपका जन्म वि. सं. १९२८ चै. शु. को फलोदी में हुआ था । वैधव्य के पश्चात् पू० गुरुवर्या सिंह श्रीजी म. सा. के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण की। आप उच्चकोटि की विद्वत्ता तो नहीं प्राप्त कर सकीं, परन्तु विनय एवं सेवा के क्षेत्र में अग्रगण्य रहीं । गुरु एवं गुरुबहिनों के प्रति आपका जो सेवा-शुश्रूषा एवं स्नेह भाव था, वह अन्यत्र मिलना दुर्लभ है । अपनी गुरुबहिनों का कार्यं स्वयं करके उन्हें अध्ययन का अवसर देना आपकी महानता का परिचायक है । जहाँ पारस्परिक प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है, वहाँ गुरुबहिनों को आगे बढ़ाने में प्रेमपूर्वक सहयोग करना, आपकी महान् विशिष्टता है । स्नेह के साथ आप में अनुशासन की कुशलता भी थी । स्नेह और अनुशासन, एक अच्छी संरक्षिका के दोनों ही गुण आपमें मौजूद थे । आपके इन्हीं सद्गुणों को देखकर वि. सं. १९६७ माघ बदी १३ को प्रवर्तिनी पद विभूषित किया
गया ।
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आप १०-११ शिष्याओं के गुरुपद को सुशोभित करती थीं । आपकी शिष्याओं में प. पू. विदुषीरत्ना बा. ब्र. हीराश्रीजी म० सा० " यथानामा तथागुणा" ही थीं । आपका स्वर्गवास | वि. सं. २०१० भादवा बदी १३ को फलोदी में हुआ ।
आदर्श प्रेम-प्रतिमा प. पू. प्र. श्री प्रेमश्रीजी म. सा.
आपश्री का व्यक्तित्व असीम था । उसे शब्दों की सीमा में बाँधना कठिन है। जिसका जीवन प्रेम-स्वरूप हो, जिसके हृदय में स्नेह का अजस्र झरना बहता हो, जिसका अन्तर् और बाह्य प्रेम में पगा हो, उस व्यक्तित्त्व को शब्दों के चौखटे नहीं ढाला जा सकता । मात्र उसका अनुभव ही किया जा सकता है | आपके सान्निध्य में रहने का सौभाग्य यद्यपि बहुत ही छोटी उम्र में मिला था, तथापि उनके जीवन की कुछ स्मृतियाँ हृदय में यथावत् अंकित हैं ।
पूज्यवर्या का जन्म फलोदी में छाजेड़ कुलदीपक किशनलालजी एवं अ० सो० लाभूदेवी की रत्नकुक्षि से वि० सं० १९३८ की शरद पूर्णिमा को हुआ था । एक चाँद आकश में चमक रहा था तो दूसरा दुनियाँ को प्रकाश देने धरती पर अवतीर्ण हुआ था । आपका नाम धूलि रखा । मानो रत्नधूलि में ही पकते हैं। धर्मसंस्कारों में पली योग्य शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न 'धूलि' को १३ वर्ष की उम्र में, अईदानजी गुछा के साथ, विवाहसूत्र में बाँध दिया । किन्तु कुदरत को कुछ और ही मंजूर था । राग तोड़ने के लिये जन्मी धूलि, राग का पोषण कैसे कर सकती थी ? जिसका जीवन सर्वजनहिताय एवं सर्वजन सुखाय था। वह एक से बँधकर कैसे रह सकती थी जिसका जीवन मुक्ति की साधना के लिये था, वह संसार के कीचड़ में कैसे फँस सकती थी। शादी को साल भर पूरा न हुआ, पति की मृत्यु हो गई, दुख होना स्वाभाविक था, किन्तु भगवान् ने कहा है- 'अज्ञानं खलु महाकष्टम् ।” दुख का कारण जीव का अपना अज्ञान है। ज्योंही अज्ञान का अन्धेरा दूर होता है सुख का सबेरा स्वतः हो जाता है । भगवान का यह कथन सत्य है यथार्थ है । तपे हुए लोहे पर की गई चोट उसे वांछित आकार में बदल देती है । आवश्यकता है विवेकपूर्वक ढ़ालने की ।
उस समय धुलिबाई एक दुधमुही बाला थी । कुछ आत्मायें वय से छोटी, किन्तु ज्ञान से परिपक्व होती हैं, जरा-सा निमित्त पाकर उनके अज्ञान की झिल्ली टक-टूक हो जाती है । पू. गुरुवर्या विशुद्ध
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