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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ ११३ संयमी सिंहश्रीजी म. सा. के सुयोग एवं सदुपदेश से धूलिबाई के हृदय में सम्यग्ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुई । धीरे-धीरे चिरसंचित वैराग्यभावना को पोषण मिला । संसार में होने वाले कर्मबन्धन के चिन्तन से वे कांप उठीं । आखिर गुरुवर्याश्री के चरणों में संयम लेने की प्रबल भावना जाग उठी सुयोग्य पात्र देखकर गुरुवर्याश्री ने भी उन्हें सहर्ष स्वीकृति दे दी । १६ वर्ष की उम्र में वि. स. १६५४ मि. वदी १० को आपने बड़े समारोहपूर्वक दीक्षा ग्रहण की। आपके जीवन में प्राणीमात्र के प्रति प्रेम का माधुर्य छलकता देखकर गुरुवर्याश्रीजी ने आपका अन्वर्थक नाम 'प्रेमश्रीजी' रखा । तीक्ष्ण बुद्धि, प्रखर प्रतिभा, गुरु समर्पण, अटूट लगन, सेवाभाव, संयमनिष्ठा, निस्पृहता आदि अलौकिक गुणों ने आपको ज्ञानी, प्रखरव्याख्यात्री, विशुद्ध-संयमी एवं ध्यानी बना दिया। आपकी आवाज बड़ी मधुर पर बुलन्द थी । जब बोलती लगता था वीणा के तार झंकृत हो उठे हो । मुख पर अपूर्व तेज था । आपके दर्शन कर अच्छेअच्छे अभिभूत हो जाते थे । आप प्राकृत- संस्कृत, न्याय दर्शन की अच्छी विदुषी थीं। बड़े-बड़े विद्वानों के साथ धारा प्रवाह संस्कृत में वार्तालाप करतीं, ऐसा लगता मानो देहधारिणी सरस्वती हों । प्रवचन देती तो ऐसा लगता मानो हिमालय के उत्तुंग शृंग से कल-कल नादिनी गंगा प्रवाहित हो रही हो । आपके प्रवचन में हृदय परिवर्तन की अपूर्व क्षमता थी । नास्तिक जैसे व्यक्ति भी आपका प्रवचन श्रवण कर आस्थावान् बन जाते थे । सात्त्विकता के अभाव में तात्त्विकता अपूर्ण है । आपका जीवन तात्त्विक ही नहीं पूर्णं सात्त्विक था । आप मौन-ध्यान-प्रिय थी, सायं प्रतिक्रमण के पश्चात् मौन ग्रहण करती वह दूसरे दिन प्रातः १० बजे खोलतीं । प्रातः ६ बजे ध्यानस्थ होती १० बजे बाहर आतीं, चाहे कितना भी आवश्यक कार्य हो, कैसा भी बड़ा व्यक्ति क्यों न आया हो, आपके नियम में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता । जिस समय आप ध्यान करके बाहर पधारतीं आपके चेहरे और आँखों में वह तेज होता कि सहसा उनके सामने देखने का साहस नहीं होता । मौन और ध्यान की उपलब्धि उनके अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के साथ बाहर में वचन-सिद्धि के रूप में हुई । उनकी वचनसिद्धि के साक्षी कई व्यक्ति आज भी मौजूद हैं । आहार शुद्धि एवं नियमितता के प्रति आपका पूर्ण लक्ष्य था । अपने युवावस्था में भी कम से कम द्रव्यों का नियम, वृद्धावस्था में तो मात्र ५ द्रव्य और ३ विगय ही खुली रखी थीं । आपका प्रत्येक चिन्तन आत्मकेन्द्रित होता था । आप वास्तव में एक वीरांगना थीं। मध्य प्रदेश की बात, पू. गुरुवर्या को दीक्षा देकर जावरा के आस-पास के क्षेत्र में विहरण कर रही थी । उन दिनों उस इलाके में डाकुओं का बड़ा उपद्रव था । आये दिन गाँव लूटे जा रहे थे । आप अपनी आठ आदर्श - शिष्याओं के साथ जंगल से गुजर रही थीं कि पीछे से घोड़ों की टॉप सुनाई दी। पीछे मुड़कर देखा तो दूर-दूर घुड़सवारों का पूरा दल था । आपकी पारखी आँखों को स्थिति समझते देर नहीं लगी । उन्हें भरोसा था प्रभु के ध्यान पर, उन्हें आस्था थी अपने शुद्ध, शील, संयम पर । युद्ध के मैदान में खड़े कमाण्डर की तरह आपने अपनी शिष्याओं को आदेश दिया - सावधान ! जब तक डाकुओं का उपद्रव शान्त न हो, शरीर और उपधि को वोसिराकर काउस्सग्गध्यान में खड़े होकर, भगवान महावीर, गजसुकुमाल, खंधक, मेतार्य आदि महामुनियों के आदर्श जीवन का चिन्तन करिये । महावीर के अनुयायी जीना जानते हैं तो मरना भी जानते हैं । कितना धैर्य ? कितना साहस ? शिष्याओं ने गुरु आज्ञा तहत्ति की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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