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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
के दुख को शेर की तरह साहस से झेलकर, २० साल की भर युवानी में १६३२ की अक्षयतृतीया को प. प. लक्ष्मीश्रीजी म. के चरणों में संयम स्वीकार कर समर्पित हो गईं। आप साहस व संयम की धनी थीं। ज्ञान और क्रिया दोनों ही समान रूप से आपके जीवन में भोतप्रोत थे । आपका प्रवचन बड़ा ही प्रभावशाली, रोचक व प्रेरक था । यही कारण है कि आपने कई आत्माओं को प्रतिबोध दे संयमी बनाया। दूसरों की भावना को अपने विचारों से अनुप्राणित कर देने की क्षमता प्राप्त कर लेना, बहुत बड़ी उपलब्धि है । आप ही का पुण्य प्रभाव है कि आज आपकी परंपरा सुयोग्य-साध्वियों से समृद्ध है, और शिव-मण्डल के नाम से प्रसिद्ध है । आपकी ७ शिष्यायें प्रसिद्ध हैं। १. प्रतापश्रीजी म० २. देवश्रीजी म० ३. प्रेमश्रीजी म० ४. ज्ञानश्रीजी म० ५. वल्लभश्रीजी म० ६. विमलश्रीजी म० ७. प्रमोदधीजी म० । आप वि. स. १९६५ पो. शु. १२ को अजमेर में दिवंगत हुईं।
इन सात पूज्याओं का विशाल शिष्या-प्रशिष्या परिवार शिव मण्डल है। रंग-विरंगे पुष्पों से जैसे वाटिका महकती है, वैसे गुण-सौरभ संपन्न ८५-६० साध्वियों से यह शिव-मण्डल का बगीचा महक रहा है।
परमप्रतापी पू० प्रतापश्रीजी म.सा० आपका जन्म वि. सं. १९२५ पौषसुद १० को फलोदी में हुआ था । आपके पिता मुकनचन्दजी लुंकड़ एवं माता सुकन देवी थी । आपका नाम आसीबाई था। १२ वर्ष की अल्पायु में सूरजमलजी झाबक के साथ आपका विवाह हुआ किन्तु आपका गृहस्थ-जीवन लम्बे समय तक नहीं चला। कुछ वर्षों में ही आपका सौभाग्य छिन गया।
जो आत्मायें साधक जीवन जीने हेतु ही जन्मी हैं, उनके लिये ये घटनायें अधिक महत्व नहीं रखतीं, वे इन्हें अपने ही कर्मों का प्रसाद मानकर हंसते-हंसते सह लेती हैं । व्यर्थ के आत ध्यान से नये कर्मों का बंधन नहीं करतीं । किन्तु अवसर का उचित लाभ उठाकर अपने जीवन को सार्थक कर लेती हैं।
आसीवाई 'बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय' के अनुसार जो कुछ हुआ उसे भूलकर, आगे क्या करना है, उस प्रयास में जुट गईं । सर्वप्रथम उन्होंने श्रावकोचित सूत्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया। धर्माराधना में मन पिरोया । इससे उन्हें वेदना में विश्राम मिला। शांति एवं सान्त्वना मिली। कर्मबन्धन से ऊवा मन मुक्ति की साधना की राह खोजने लगा। ठीक इसी समय आदर्श त्याग प्रतिमा विशुद्ध संयमी शिवश्रीजी म.सा० का आपको सुयोग मिला । उनकी प्रेरणा से आसीबाई में पूर्ण साधनामय संयमी जीवन जीने का दृढ़ संकल्प बना और वि०सं० १९४७ मिगसर बदी १० को आपने दीक्षा ग्रहण की। पू. शिवश्रीजी म.सा० की प्रधानशिष्या बनने का गौरव प्राप्त किया।
आपका जीवन शान्त, सरल एवं गुरुसेवा समर्पित था। ज्ञानाभ्यास के साथ आप तपस्विनी थीं। आपने १२ शिष्याओं की गुरुपद के साथ शिवमण्डल के प्रवर्तिनी पद को भी कई वर्षों तक सुशोभित किया । वास्तव में आपका जीवन तप-त्याग के प्रताप से पूर्ण था।
___ द्वादश पर्वव्याख्यान, संस्कृत के चैत्यवन्दन स्तुति, आनन्दघन चौबीसी; देवचन्द्र चौवीसी आदि आपके उपयोगी प्रकाशन है ।
यू तो आपकी सभी शिष्या योग्य थी किन्तु प. पू. चैतन्यश्रीजी म. परमविदुषी महान् शासनप्रभाविका थीं।
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