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________________ १४४ भारतीय नारी : युग-युग में और आज : राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराज जी तो स्त्री क्या समझे, राजनीति को स्त्री क्या समझे, यह कहकर पुरुष ने उसको घर की चहार-दीवारी तक सीमित कर दिया। पति अपनी आय व सम्पत्ति भी पत्नी को नहीं बताता, यह कहकर कि उसके पेट में बात पचेगी नहीं । गृह, समाज, व्यापार आदि में स्त्रियों का परामर्श हास्यास्पद बना दिया गया। यह मान्यता बन गई, स्त्रियों के परामर्श पर चलने वाला परिवार, समाज या राज्य नष्ट ही हो जायेगा। पुरुष ने नहीं सोचा, नारी इतनी अयोग्य या अक्षम क्यों है तथा वह योग्य सक्षम कैसे बन सकती है ? ऐसा होना प्रकृतिगत मानकर वह उससे वैसे ही बर्तता रहा। परिणाम हुआ, नारी अक्षम बनती गई और उसी आधार पर पुरुष उसकी अधिकाधिक उपेक्षा करता गया। उपेक्षा से अक्षमता की एक शृंखला बन गई। उपेक्षा से अक्षमता और अक्षमता से उपेक्षा इस चक्र-व्यूह में नारी शताब्दियों और सहस्राब्दियों तक फंसी रही। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी हेयता इस प्रकार नारी सामाजिक जीवन में तो उपेक्षित थी ही, आध्यात्मिक जगत् में भी वह हेय बताई जाती रही । ऋषियों ने, महर्षियों ने, सन्तों ने, साधकों ने पुरुष के पतन का हेतु स्त्रियों को ही बताया। उसे कूट-कपट की खान कहा, पुरुष को नरक-कुण्ड में डाल देने वाली कहा। और न जाने क्या-क्या कहा ? वस्तुस्थिति यह थी कि विकार हेतु पुरुष के लिए स्त्री थी और स्त्री के लिए पुरुष था। पता नहीं, स्त्री ने ही पुरुष को कैसे डुबोया ? अधिक यथार्थ तो यह रहा कि पुरुष ही नारी को पथ-भ्रष्ट करने में अगुआ रहे हैं। पुरुष स्त्रियों को बलात् उठाकर ले भागे, ये उदाहरण तो इतिहास के पृष्ठों पर व धर्म-ग्रन्थों में अनगिनत मिलेंगे, पर स्त्री पुरुषों पर बलात्कार करती प्रायः न देखी गई है, न सुनी गई है। ऋषि-महर्षि और साधु-मुनि विरक्त वृति में थे। अन्य पुरुषों को भी वे विरक्त देखना चाहते थे। उनकी निरंकुश काम-वृत्ति को सीमित करने के लिये उन्होंने स्त्री की गर्हा की, पर, समाज ने यही समझा, ज्ञानी पुरुषों ने कहा है अतः स्त्री ही ऐसी है, पुरुष ऐसा नहीं। अध्यात्म की अन्य अनेक दिशाओं में भी नारी तजित ही रही। नारी होना भी पाप माना गया। किसी ने कहा - यह मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है। किसी ने कहा-यह संन्यास और दीक्षा की अधिकारिणी नहीं है। अध्यात्म में और शिक्षा में स्त्री के पिछड़ेपन का कितना सबल उदाहरण है कि वैदिक, बौद्ध, जैन परम्परा के असीम वाङमय में एक भी ऐसा आधारभूत ग्रन्थ नहीं है, जो किसी विदुषी साधिका के द्वारा लिखा गया हो। भारती का, या ऐसे कुछ एक अन्य नाम लेकर समस्त नारी समाज को शिक्षा के क्षेत्र में समुन्नत बताया जाता है । शताब्दियों और सहस्राब्दियों के इतिहास में दो-चार नामों का मिल जाना नारी समाज की शिक्षित दशा का मान-दण्ड नहीं बन जाता। उन नामों का उपयोग तो केवल इसी सन्दर्भ में संगत हो सकता है कि अविद्या के उस युग में भी नारी ऐसी हो सकती है, तो आज के विद्या-बहुल-युग में वह अशिक्षित व अपढ़ रहे, यह लज्जा की बात है। बुद्ध व महावीर के युग में नारी युग-युग के अंकन में इतनी पिछड़ती गई कि उसे पर्याप्त रूप से उठा लेना किसी एक ही यग-परूष के वश की बात नहीं रही । नारी के प्रति अनेक कुण्ठित लोक-धारणाएँ प्रचलित हो गई थीं। किसी भी क्षेत्र में उसे आगे लाने में सामाजिक विरोध से लोहा लेना पड़ता था। बुद्ध के सामने प्रश्न आया, संघ में परुषों की तरह स्त्रियों को भी दीक्षित किया जाये। बुद्ध इस पक्ष में नहीं थे। स्त्रियों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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