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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१४५ भिक्ष -संघ में लेना उन्हें सामाजिक दृष्टि से व संघीय दृष्टि से उचित नहीं लगता था। बुद्ध की मौसी माँ प्रजापति गौतमी ने आग्रह किया । वह अनेक शाक्य स्त्रियों के साथ भिक्ष णी का वेश धारण कर बुद्ध के सम्मुख आ गई । निडरतापूर्वक उसने बुद्ध से कहा-"यह आपका कैसा धर्म-संघ है, जिसमें स्त्रियों को आत्म-साधना का अधिकार नहीं है ।" बुद्ध के अग्रणी शिष्य आनन्द ने भी गौतमी की दीक्षा का आग्रह किया। बुद्ध ने कहा- "यह कैसा लगेगा की शाक्य कुल की स्त्रियाँ विभिन्न कुलों में भिक्षार्थ भ्रमण करेंगी ?"
___ आनन्द- 'भन्ते ! जिस गौतमी ने मातृ-अभाव में आपका लालन-पालन किया, उसे आप संघ में प्रविष्ट होने की अनुज्ञा न दें, यह भी तो कैसा लगेगा ?"
बुद्ध- "आवृष आनन्द ! मैं तुम्हारे आग्रह पर गौमती को उपसम्पदा (दीक्षा) की अनुज्ञा देता हूँ, पर साथ-साथ यह भी घोषणा करता हूँ कि मेरा धर्म-संघ मेरे पश्चात् जितने समय तक चलता, अब उससे आधे समय तक चलेगा । क्योंकि संघ में स्त्रियों का प्रवेश हो गया है।"
इस घटना-प्रसंग से पता चलता है, नारी विषयक हीन भावनाएँ पुरुष के मस्तिष्क में कहाँ तक घर किये हुए थीं ? युगपुरुष भी उसके अपवाद नहीं थे। बुद्ध ने इसी प्रसंग में इतना और जोड़ा, नवदीक्षित भिक्ष चिरदीक्षित भिक्ष को नमस्कार करता है, पर, जो भिक्ष णी चिरदीक्षिता होगी, वह भी नवदीक्षित भिक्ष को ही नमस्कार करेगी । गौतमी ने दीक्षा-प्रसंग पर तो मूक भाव से बुद्ध की इस आज्ञा को शिरोधार्य किया, पर कुछ ही दिनों पश्चात् प्रश्न उठाया-"भन्ते ! ऐसा क्यों, कि चिरदीक्षिता भिक्ष णी नवदीक्षित भिक्ष को नमस्कार करे ? नवदीक्षित भिक्षु यदि चिरदीक्षिता भिक्षुणी को नमस्कार करे तो क्या हानि है ?"
"गौतमी ! इतर धर्म-संघों में भी ऐसा नहीं होता कि पुरुष स्त्री को अर्थात् भिक्ष -भिक्षणी को नमस्कार करें। अपना धर्म-संघ तो उन सबसे श्रेष्ठ है, इसमें तो ऐसा हो ही कैसे सकता है ?"
गौतमी का यह प्रश्न अब तक ढाई हजार वर्षों के बाद भी निरुत्तर खड़ा है । स्त्री पुरुष की श्रेष्ठता को चुनौती नहीं दे सकी, न पुरुष ने ही इस विषय में अपना औचित्य बदला । बौद्ध और जैन दोनों धर्म-संघों में अब तक यही परम्परा चल रही है।
जैन परम्परा में सदा से ही स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से दीक्षित होते रहे हैं। महावीर के सामने प्रश्न आया-क्या भिक्ष की तरह भिक्ष णी भी आचार्य के गुरुतर पद पर आरूढ़ हो सकती है ? समाधान रहा, संघ में एक भी भिक्ष इस योग्य हो, तब तक भिक्ष ही आचार्य बनेगा, भिक्षु णी नहीं। योग्य भिक्ष के अभाव में भी वही भिक्ष णी आचार्य पद पर आरूढ़ हो सकती है, जिसकी दीक्षा-पर्याय कम से कम साठ वर्ष की हो चली हो, जबकि भिक्ष तरुण भी आचार्य पद पर आसीन हो सकता है । प्रस्तुत विधान भी यही बात व्यक्त करता है-श्रोष्ठता से, योग्यता से, क्षमता से नारी को बहुत न्यून समझा जाता रहा है । पर, कहा जा सकता है, महावीर और बुद्ध के युग में नारी जहाँ थी वहाँ से बहुत कुछ आगे बढ़ी है।
बुद्ध की पत्नी यशोदा अवगुंठन नहीं रखती थी। राजकुल की वृद्ध महिलाएँ उसे ऐसा करने के लिये विवश करतीं, तो वह कहती-ऐसा क्यों आवश्यक है, मेरी समझ में नहीं आता; अतः अवगुंठन नहीं रखूगी । गौतमी और यशोदा सम्भवतः इतिहास की प्रथम महिलाएं होंगी, जिन्होंने नारी जाति के पक्ष में प्रश्न खड़े किये। खण्ड ५/१६
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