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________________ -महोपाध्याय विनयसागरजी (जैनधर्म, दर्शन आदि के विश्रुत विद्वान; प्राकृत भारती अकादमी के निदेशक) खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय (जैन परम्परा के नन्दन वन में खरतर गच्छ रूप कल्पवृक्ष का उद्भव एवं विकास का प्रामाणिक इतिवृत्त) . खरतरगच्छ का उद्भव श्रमण भगवान् महावीर के श्रमणों की विशुद्ध आचार परम्पराओं को पुनरुज्जीवित/सुरक्षित रखने हेतु ही खरतरगच्छ की उत्पत्ति हुई थी। वस्तुतः जैन सिद्धान्तों के विधान के अनुसार जैन यतियों का मुख्य कर्तव्य केवल आत्म-कल्याण करना है और उसके आराधना-निमित्त शम, दम, तप आदि दशविध यतिधर्म का सतत पालन करना है। जीवन-यापन के निमित्त जहाँ कहीं मिल गया वैसा लूखा-सूखा और सो भी शास्त्रोक्त विधि के अनुकूल, भिक्षान्न का उपभोग कर, अहर्निश ज्ञान-ध्यान में निमग्न रहना और जो कोई मुमुक्ष जन अपने पास चला आवे उसको एकमात्र मोक्षमार्ग का उपदेश करना है। इसके सिवा यति को न गृहस्थजनों का किसी प्रकार का संसर्ग ही कर्तव्य है और न किसी प्रकार का किसी को उपदेश ही वक्तव्य है। किसी स्थान में बहुत समय तक नियतवासी न बनकर सदैव परिभ्रमण करते रहना और वसति में न रहकर गाँव के बाहर जीर्ण-शीर्ण देवकुलों के प्रांगणों में एकान्त निवासी होकर किसी तरह का सदैव तप करते रहना ही जैन यति का शास्त्रविहित एकमात्र जीवन-क्रम है। किन्तु दीर्घकालीन बारम्बार दुष्काल आदि कई कारणों से कुछ मुनिगण शिथिलाचार/सुविधावाद की ओर क्रमशः वेग से बढ़ते गये। इसी के परिणामस्वरूप शिथिलाचार, स्वच्छन्दता के साथ फलता-फूलता चैत्यवास के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इसका प्रारम्भिक काल छठी शताब्दी मान सकते हैं । कतिपय आचारनिष्ठ सुविहित साधुओं को छोड़कर इन शिथिलाचारियों/चैत्यवासियों का सर्वत्र बोलबाला हो गया। इनका जीवन शास्त्राचार के विपरीत पूर्णतः विकृत होता जा रहा था। इन लोगों के आचार की कड़ी आलोचना सम्भवतः सर्वप्रथम हमें आचार्य हरिभद्र सूरिकृत सम्बोध प्रकरण में मिलती है। वे अपनी अन्तर्व्यथा को प्रकट करते हुए कहते हैं कि “ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं। पूजा करने का आरम्भ करते हैं। देव द्रव्य का उपभोग करते हैं। जिन मन्दिर और शालाएँ बनवाते हैं । १. यति, श्रमण, निर्ग्रन्थ, मुनि, अनगार, भिक्ष क, साधु आदि शब्द पर्यायवाची ही हैं। खण्ड ३/१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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