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खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
रंग बिरंगे सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहनते हैं। बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं । आर्यिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह-तरह उपकरण रखते हैं। सचित्त, जल, फल, फूल आदि द्रव्य का उपभोग करते हैं। दिन में दो-तीन बार भोजन करते और ताम्बूल, लवंगादि भी खाते हैं। ये लोग मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं तथा भभूत देते हैं । ज्यौनारों में मिष्ट आहार प्राप्त करते हैं । आहार के लिए खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते । स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी आलोचन - प्रायश्चित्त आदि करवाते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र फुलेल का उपयोग करते हैं। अपने होनाचारी मृत गुरुओं की दाहभूमि पर स्तूप बनवाते हैं । स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियाँ उनके गुणों के गीत गाती हैं । सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने व्यर्थ बकवाद में समय नष्ट करते हैं । चेला बनाने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगते और जिन प्रतिमाओं का क्रय-विक्रय करते हैं । उच्चाटन करते और वैद्यक, मन्त्र-यन्त्र, गंडा, ताबीज आदि में कुशल होते हैं । ये सुविहित साधुओं के पास जाते हुए श्रावकों को रोकते हैं । शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध रखते हैं और चेलों के लिए आपस में लड़ पड़ते हैं । "
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चैत्यवास का यह चित्र आठवीं शताब्दी का है । इसके पश्चात् तो चैत्यवासियों का आचार उत्तरोत्तर शिथिल होता ही गया और कालान्तर में चैत्यालय भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये तथा वे जैनशासन के लिए अभिशाप रूप हो गये । ग्यारहवीं शताब्दी के चैत्यवासियों की हीन स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए मुनि जिनविजयजी' लिखते हैं-
'इनके समय से श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में उन यतिजनों के समूह का प्राबल्य था जो अधिकतर चैत्यों अर्थात् जिन मन्दिरों में निवास करते थे । ये यतिजन जैन देव मन्दिर, जो उस समय चैत्य के नाम से विशेष प्रसिद्ध थे, उन्हीं में अहर्निश रहते, भोजनादि करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पाठनादि में प्रवृत्त होते और सोते-बैठते । अर्थात् चैत्य ही उनका मठ या वासस्थान था और इसलिए वे चैत्यवासी के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे । इसके साथ उनके आचार-विचार भी बहुत से ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकार के थे जो जैन-शास्त्रों में वर्णित निर्गन्थ जैन मुनि के आचारों से असंगत दिखाई देते थे । वे एक तरह से मठपति थे ।
'शास्त्रकार शान्त्याचार्य, महाकवि सूराचार्य, मन्त्रवादी वीराचार्य आदि प्रभावशाली, प्रतिष्ठासम्पन्न विद्वदग्रणी चैत्यवासी यतिजन उस जैन समाज के धर्माध्यक्षत्व का गौरव प्राप्त कर रहे थे । जैन समाज के अतिरिक्त आम जनता में और राजदरबार में भी चैत्यवासी यतिजनों का बहुत बड़ा प्रभाव था । जैन धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त, ज्योतिष, वैद्यक और मन्त्र तन्त्रादि शास्त्रों और उनके व्यावहारिक प्रयोगों के विषय में भी ये जैन यतिगण बहुत विज्ञ और प्रमाणभूत माने जाते थे । धर्माचार्य के खास कार्यों और व्यवसायों के सिवाय ये व्यावहारिक विषयों में भी बहुत कुछ योगदान किया करते थे । जैन गृहस्थों के बच्चों की व्यावहारिक शिक्षा का काम प्रायः इन्हीं यतिजनों के अधीन था और इनकी पाठशालाओं में जैनेतर गणमान्य सेठ साहूकारों एवं उच्चकोटि के राज दरबारी पुरुषों के बच्चे भी बड़ी उत्सुकतापूर्वक शिक्षालाभ प्राप्त किया करते थे । इस प्रकार राजवर्ग और जनसमाज में इन चैत्यवासी यतिजनों की
१. कथाकोश प्रस्तावना, पृ० ३ ।
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