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________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १७९ अवलोकन किया तो तत्काल ही अपने पवित्र उपदेशामत की वर्षा से ऐसा शान्त किया कि फिर वे कभी न उभरी न चमकीं। यही तो उस महासती की विशिष्टता वह महत्ता थी, जो आज भी प्रत्येक स्त्री के लिए अनुकरणीय व आदरणीय है। उनमें संयम का वह तीव्र तेज था, जो रथनेमि को पुनः संयम के पवित्र पथ पर दृढ़ता से आरूढ़ कर सका । पतिदेव के मार्ग का अनुसरण करने वाली सतियों में वे अग्रगण्या थीं, अद्भुत पातिव्रत्य था उनका, उपदेश शक्ति भी अलौकिक थी। इसी प्रकार आबाल ब्रह्मचारिणी राजकुमारी चन्दनबाला के जीवनवृत्त पर दृष्टिपात करते हैं तो विस्मय और करुणा से अभिभूत हो जाना पड़ता है। सचमुच ही वह महाशक्तिस्वरूपा थी। राजकुल में जन्म लेकर भी बाल्यावस्था में ही वे मातृ-पितृ विहीना हो गई, मात-भूमि से तथा माता से बलात् पृथक कर दी गई। उसने अपनी जननी को सतीत्व रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग करते देखा था, आततायी के पंजे में आकर वे सरे बाजार बेची गईं, उन पर कष्टों, उपसर्गों के पर्वत टूट पड़े फिर भी उस वीर बालिका ने अद्भुत सहनशीलता का परिचय देकर सबको अवाक् कर दिया। उस जमाने में स्त्रियों का चाँदी के चन्द टुकड़ों के लिये क्रय-विक्रय होता था। पुरुष अपने सर्वाधिकार सुरक्षित रखकर महिलाओं को पाँव की जूती से अधिक महत्व नहीं देता था। धर्मानुष्ठानों में भी उनका कोई अधिकार स्वीकृत न था । वे केवल पुरुषों की विलास सामग्री समझी जाती थीं। उनका अपना कोई स्वत्व या सत्ता नहीं थी। कुमारी चन्दना को भी इस दशा का भोग्य बनना पड़ा था। उन्होंने स्वयं इस दयनीय अवस्था का अनुभव किया था। अतः उन्होंने इसे सुधारने की प्राणपण से चेष्टा की। संसार के भौतिक सुखों को लात मारकर वे नारी जाति का उद्धार करने के लिए भगवान महावीर के संघ में सम्मिलित हो गईं। चतुर्विध संघ में समस्त आर्याओं की आप नेत्री बनीं। हम शास्त्रों में लोगों के चरित्रों को पढ़ते हैं तो पता लगता है कि कमल कोमला असूर्यपश्या वे राजरानियाँ भी कि जिनके एक संकेत मात्र पर सहस्रों सेवक-सेविकाएँ अपने प्राण तक न्यौछावर करने को प्रस्तुत रहते थे । भगवान् महावीर प्रभु के धर्म की शरण में आकर चन्दनबाला की अनुगामिनी बन आत्मकल्याण के साथ-साथ पर-कल्याण करती हुई राजवैभव में पले हुए कोमल शरीर के सुख-दुःख की परवाह न करके तीव्र तप द्वारा कर्ममल को नष्ट करती थीं। भगवान् का पवित्र सन्देश देने गाँवगाँव नगर-नगर पादविहार करतीं। भयंकर अटवियों, विषम पर्वतों घाटियों को पार करती मात्र भिक्षावृत्ति से संयम के साधन रूप शरीर का निर्वाह करती थीं। वे श्रेष्ठी-पत्नियाँ, महाराज-कन्याएँ भी जिनके ऐश्वर्य को देखकर बड़े-बड़े सम्राट चकित हो जाते थे, तप-त्याग-संयम के पुनीत पथ की पथिकाएँ बन शीत, ताप, क्षुधा, पिपासा, अपमान, अनादर से निरपेक्ष, आत्मस्वरूप में तन्मय हो, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र की आराधना करती हुई अपने अमूल्य दुर्लभ मानव जीवन को सार्थक करती थीं। भगवान् वर्द्धमान महाप्रभु के श्राविका संघ की मुख्याएँ, महाश्रद्धावती, उदात्त विचारों के गगनांगण में विचरण करने वाली गृहस्थरमणियाँ-जयन्ती, रेवती, सुलसा आदि श्राविकायें क्या कम विदुषियाँ थीं ? "भगवती सूत्र' में इनकी विद्वत्ता, श्रद्धा व भक्ति का अच्छा वर्णन मिलता है । श्राविका शिरोमणी जयन्ती ने भगवान् से कैसे गम्भीर प्रश्न किये थे। रेवती की भक्ति देवों की भक्ति का भी अतिक्रमण करने वाली थी। मुलसा की अडिग श्रद्धा देखकर मस्तक श्रद्धावनत हो जाता है। श्रमणोपासिका सुलसा की सतर्कता एवं अडिग श्रद्धा के विषय में भी हमें विस्मित रह जाना पड़ता है । अम्बड़ ने उसकी कई प्रकार से परीक्षा की। ब्रह्मा, विष्ण, महेश बना तीर्थकर का रूप धारण कर संमबसरण को लोला रच डाली, किन्तु सुलसा को आकृष्ट न कर सका। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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