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________________ आदिवचन जैन धर्म में रत्नत्रय का सर्वाधिक महत्व है। रत्नत्रय के क्रम में एक ओर सम्यग्ज्ञान, दर्शन चारित्र है, तो दूसरी ओर देव-गुरु-धर्म है। जिसप्रकार दर्शन (सम्यक्त्व) ज्ञान एवं चारित्र को संतुलित और मोक्ष-अभिमुख रखता है, उसी प्रकार गुरु भी देव और धर्म के बीच का सन्तुलन है । गुरु ही देव का स्वरूप समझाता है, धर्म का मार्ग बताता है, इस कारण 'गुरु' की अपरम्पार महिमा है । भारतीय मनीषियों ने 'गरुरेव परब्रह्म" कहकर गुरु को अत्यन्त श्रद्धा और आदर्श का केन्द्र बना दिया है। गुरु वह अद्भुत कलाकार है, जो मृपिण्ड समान शिष्य को महामानव के रूप में प्रतिष्ठित कर सकता है । पत्थर को भगवान और कण को सुमेरू बना सकता है, इसलि। शिष्य के लिए गुरु-पूजा, गुरु-भक्ति न केवल एक आवश्यक, अनिवार्य कर्तव्य है, किन्तु यह एक आत्मसन्तोष और मानसिक प्रफुल्लता का विषय भी बन जाता है । गुरु-पूजा करके ही शिष्य अपनी साधना, उपासना, ज्ञानार्जना को कृतकृत्य व सार्थक/सफल समझता है । भारतीय संस्कृति में इसे ही “गुरु-दक्षिणा" की गरिमा से मंडित किया गया है। श्रद्धया पूज्य प्रवर्तिनीधी सज्जनश्रीजी महाराज हम सब के लिए "गुरु" के सर्वोच्च सिंहासन पर विराजित श्रद्धा का वह जीवन्त रूप है, जिसके प्रति हमारे अन्तःकरण के महासागर में श्रद्धा-विनय-भक्तिबहुमान-कृतज्ञता की भाव मियां उछल रही हैं । भावोर्मियों का यह ज्वार कभी-कभी इतना प्रखर हो जाता है कि हम जीवन को उनके चरणों में समर्पित करके भी स्वयं को ऋणमुक्त नहीं समझ सकतीं, उनका उपकार शब्दातीत है, कालातीत है । आगम की भाषा में दुष्प्रतिकार-दुप्पडियारे है । श्रद्ध या गुरुणीश्री का जीवन साधुता का जीवन्तस्वरूप है । इस विषय में अधिक चर्चा यहाँ नहीं करूंगी, चूंकि इस विषय में सैकड़ों विचारकों ने जो कहा है, अनुभव किया है, यह सब प्रस्तुत ग्रन्थ में है ही, पाठक पढ़ेंगे ही । मैं तो सिर्फ अपनी उमड़ती, उछाल मारती श्रद्धा की अभिव्यक्ति मात्र करके मन को हल्का करना चाहती हूँ। लगभग सात वर्ष पूर्व जब प्रवर्तिनीश्रीजी महाराज संयम-साधना के ४० वर्ष पूर्ण कर पाँचवे दशक में प्रवेश कर रही थीं तब से मेरी व मेरी अन्य श्रमणी बहनों की भावना जगी थी, कि हम पूज्य प्रवर्तिनीश्रीजी के दीक्षा के ५० वर्ष की सम्पन्नता (स्वर्ण जयन्ती प्रसंग) के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का आयोजन करें। हम सब को भावना एक दिन पूज्य मणिप्रभसागरजी महाराज के समक्ष चर्चा का विषय बनी तो उन्होंने हमें न केवल उत्साहित किया, बल्कि सम्पूर्ण मार्ग-दर्शन करने तथा हर प्रकार का महयोग करने का आश्वासन भी प्रदान किया। उनके उत्साहसंवर्धन से प्रेरित होकर धीरे-धीरे हमने अभिनन्दन-ग्रन्थ की परिकल्पना को एक आकार दिया, एक योजना का स्वरूप प्रदान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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