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________________ 823 खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी दिल्ली निवासी श्रीमालकुलोत्पन्न सेठ रयपति ने सम्राट गयासुद्दीन तुगलक से तीर्थयात्रा का फरमान प्राप्त किया कि “जिनकुशलसूरि जी महाराज की अध्यक्षता में सेठ रयपति श्रावक का संघ शत्रु जय, गिरनार आदि तीर्थयात्रा के निमित्त जहाँ-जहाँ जाये वहाँ-वहां इसे सभी प्रान्तीय सरकारें आवश्यक मदद दें । और, संघ की यात्रा में बाधा पहुंचाने वाले लोगों को दण्ड दिया जाये ।” फरमान प्राप्त करने के पश्चात् संघयात्रा के लिए सेठ रयपति ने आचार्यश्री से अनुमति चाही । आचार्यश्री से तीर्थयात्रा का आदेश प्राप्त कर सेठ रयपति ने वैशाख वदी सातम को विशाल संघ के साथ दिल्ली से प्रस्थान किया। संघ कन्यानयन, नरभट, फलौदी होता हुआ पाटण पहुँचा । वहाँ सूरिजी से संघ में साथ पधारने की प्रार्थना की । जिनकुशलसूरिजी भी अपने विशाल साधु समुदाय के साथ संघ यात्रा में सम्मिलित हुए । संघ आषाढ़ बदी छठ को शत्रु जय पहुँचा । वहाँ दो दीक्षाएँ हुईं । सप्तमी के दिन समवसरण, जिनपतिसूरि, जिनेश्वरसूरि आदि गुरुओं की प्रतिष्ठाएँ करवाईं आषाढ बदी नवमी के दिन व्रतग्रहण समारोह हुआ और उसी दिन सुखकीर्ति गणि को वाचनाचार्य पद प्रदान किया । यह विशाल यात्री संघ शत्रु जय से प्रस्थान कर आपाढ़ सुदी चौदस को गिरनार पहुंचा । यात्रा सम्पन्न कर सूरिजी पाटण पधार गये और संघ वहाँ वापस दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गया । संवत् १३८१ वैसाख बदी पाँचम को पाटण के शांतिनाथ विधि चैत्य में सूरिजी की अध्यक्षता में विराट प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ । इसमें अगणित जिनप्रतिमाएं जिनप्रबोधसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अम्बिका आदि मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई । वैशाख बदी छठ के दिन जयधर्मगणि को उपाध्याय पद दिया । भीमपल्ली के श्रावक वीरदेव ने सम्राट गयासुद्दीन से तीर्थयात्रा का आदेश प्राप्त कर सूरिजी Safar में जेठ बदी पाँचम को भीमपल्ली संघ निकाला । यह विराट संघ वायड, सेरीसा, सरखेज, आसापल्ली, खम्भात होता हुआ शत्रु जय पहुँचा । वहाँ आदिनाथ मन्दिर के विधिचैत्य में नवनिर्मित चतुर्विंशति जिनालय एवं देव कुलिकाओं पर कलश व ध्वज आदि का आरोपण हुआ । तीर्थं यात्रा सानन्द सम्पन्न कर संघ वापस लौटाता हुआ सेरीसा, शंखेश्बर, पाडल होते हुए श्रावण सुदी ग्यारस को भीमपल्ली पहुंचा । संवत् १३८२ वैशाख सुदी पांचम को भीनमाल में श्रावक वीरदेव ने महामहोत्सव किया जिसमें अनेक संघों की उपस्थिति में विनयप्रभ आदि अनेक साधु-साध्वियों को आचार्यश्री ने दीक्षा प्रदान की । वहाँ से सूरिजी साचोर, लाटहृद होकर बाड़मेर पधारे। वहीं जिनदत्तसूरि रचित 'चैत्यवंदन कुलक' पर विस्तृत टीका की रचना आपने की। संवत् १३८३ पोष सुदि पूनम को अनेकों को दीक्षाएँ दीं। वहाँ से लवणखेटक होकर समियाणा होते हुए जालौर पधारे। फाल्गुन बदी नवमी को विविध उत्सव हुए और अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा एवं अनेकों को दीक्षित किया । जिनकुशल सूरिजी ने अपने जीवनकाल में ५० हजार नये जैन बनाए। शासन की महती प्रभावना की । आपकी रचित दो कृतियाँ प्राप्त हैं- चैत्यवंदनकुलक टीका और जिनचन्द्रसूरि चतुःसप्तति एवं संस्कृत भाषा में नव स्तोत्र प्राप्त हैं । ९. इस समय की प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ पंचतीर्थी बीकानेर सुपार्श्वनाथ मन्दिर में विद्यमान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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