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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
जिस प्रकार अपने जीवनकाल में जनसंघ के लिये ये परोपकारी थे वैसे ही स्वर्गवास के पश्चात् भी आज भी भक्तों के मनोवांछित पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के सदृश हैं, हाजरा हजूर हैं । आज सारे भारत वर्ष में आपके जितने चरण, मूर्तियाँ व दादाबाडियाँ हैं, अन्य किसी की नहीं । आपकी शिष्य परम्परा भी विशाल रही है । आपके शिष्य विनयप्रभ हुए । विनयप्रभ के पौत्र शिष्य क्षेमकीर्ति हुए। इन्हीं के नाम से क्षेमकीर्ति उपशाखा निकली । इस शाखा में सैकड़ों प्रौढ़ विद्वान हुए, इनमें से उपाध्याय जयसोम, उपाध्याय गुणविनय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इस शाखा में अंतिम यति श्यामलालजी के शिष्य विजयचन्द्र हुए जो बीकानेर की गद्दी पर जिनविजयेन्द्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । अब यह परम्परा लुप्त हो गई है।
आपके शासनकाल में अनेकों दिग्गज विद्वान हुए, जिनमें से कतिपय के नाम इस प्रकार हैं :
षडावश्यक बालावबोधकार, तरुणप्रभसूरि, लब्धिनिधान उपाध्याय, कवि पद्म, ठक्कर फेरू, धर्मकलश, सारमूर्ति, समधरू, राजशेखराचार्य, दिवाकराचार्य, गौतमरासकार विनयप्रभ आदि ।
(१३) जिनपद्मसरि युगप्रधान दादा जिनकुशलसूरिजी के पट्टधर जिनपद्मसूरि हुए । इनके पिता का नाम अम्बदेव या आम्बाशाह था । कहाँ के निवासी थे, माता का क्या नाम था, जन्म किस संवत् में हुआ? कोई उल्लेख नहीं मिलता है । १३८४ माघ सुदी पाँचम को देवराजपुर में जिनकुशलसूरिजी ने आपको दीक्षा प्रदान कर पद्ममूर्ति नाम रखा था। इस प्रसंग में पदममूर्ति के लिए 'क्ष ल्लक' शब्द का प्रयोग किया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि ८-१० वर्ष की बाल्यावस्था में ही इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। आचार्यश्री के पास ही रहकर समस्त शास्त्रों का विधिवत् अध्ययन किया था।
जिनकुशलसूरिजी का स्वर्गवास हो जाने पर और उनके आदेशानुसार संवत् १३६० ज्येष्ठ सुदी छठ सोमवार को देवराजपुर (देरावर) के आदिनाथ विधि चैत्य में वड़े विधि-विधान एवं महोत्सव के साथ तरुणप्रभाचार्य ने इनको आचार्य पद पर बिठाया और जिनपद्मसूरि नाम घोषित किया। इस प्रसंग पर महोपाध्याय जयधर्म, महोपाध्याय लब्धिनिधान. आदि तीस साधु और अनेकों साध्वियाँ उपस्थित थीं इस पाट महोत्सव का आयोजन सेठ हरिपाल ने किया था। इसी समय जिनपद्मसूरि ने अनेक मुनियों को भागवती दीक्षा दी । इसी समय अमृतचन्द्र गणि को वाचनाचार्य पद दिया।
जिनपदमसूरि के सम्बन्ध में यह जनश्रु ति प्रसिद्ध है कि एक बार जब वे विवेकसमुद्रोपाध्याय आदि मुनियों के साथ बाड़मेर गए हुए थे तो वहाँ लघुद्वार वाले मन्दिर में विशालकाय भगवान महावीर की मूर्ति देखकर बाल्यस्वभाव से प्रेरित होकर ये शब्द कहे :---
"बूहा णंढा वसही वड्डी अन्दरि किउं करि माणी ।" अर्थात् इतने छोटे द्वार वाले मन्दिर के अन्दर इतनी विशाल मूर्ति कैसे लाई गई ? इससे कितने ही श्रावकों को असन्तोष व अरुचि भी पैदा हुई, किन्तु शीघ्र ही श्री विवेकसमुद्रोपाध्यायजी ने उसका समाधान कर दिया।
इसके बाद आप जब गुजरात के लिये विहार कर रहे थे, उस समय मार्ग में सरस्वती नदी के किनारे ठहरे। तब एकान्त में यह चिन्ता हुई कि "कल गुजरात पहुँच कर पत्तनीय संघ के सम्मुख धर्मदेशना देनी है और मैं बालक हूँ, कैसे धर्मदेशना दे सकूँगा?" तो सरस्वती नदी के किनारे ठहरने के कारण सरस्वती ने सन्तुष्ट होकर वरदान दिया और आपने प्रातःकाल पाटण पहुँचकर "अर्हन्तो भगवन्त
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