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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
सम्राट ने अपने कश्मीर प्रवास में धर्मगोष्ठी व जीवदया प्रचार के लिए वाचक महिमराज को भेजने की प्रार्थना की । मन्त्रीश्वर और श्रावक वर्ग साथ में थे ही, अतः सूरिजी ने लाभ जानकर मुनि हर्षविशाल और पंचानन महात्मा आदि के साथ वाचक महिमराजजी को भी भेजा। मिती श्रावण शुक्ला १३ को प्रथम प्रयाण राजा रामदास की बाडी में हुआ। उस समय सम्राट, सलीम तथा राजा, महाराजा और विद्वानों की एक विशाल सभा एकत्र हुई, जिसमें सूरिजी को भी अपनी शिष्य-मण्डली सहित निमन्त्रित किया । इस सभा में समयसुन्दरजी ने “राजानो ददते सौख्यं" वाक्य के १०२२४०७ अर्थ वाला 'अष्टलक्षी' ग्रन्थ पढकर सुनाया। सम्राट ने उसे अपने हाथ में लेकर रचयिता को समर्पित करके प्रमाणीभूत घोषित किया।
कश्मीर विजय के पश्चात् आपके सामयिक अनन्त चमत्कारों, विशुद्ध गुणों और वैदुष्य को देखकर सम्राट अकबर अत्यन्त प्रभावित हुए और बड़े महोत्सव के साथ संवत् १६४६ फाल्गुन बदी दशमी के दिन आने हाथों से जिनचन्द्रसूरि को युगप्रधान पद से अलंकृत किया। इसी दिन महिमराज को आचार्य पद देकर जिनसिंहसरि नाम रखा और जयसोम एवं रत्ननिधान को उपाध्याय पद तथा पं० गुणविनय व समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद से सुशोभित किया। युगप्रधान गुरु के नाम पर इस महोत्सव में महामन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने एक करोड़ रुपये व्यय किये थे । सम्राट ने लाहौर में तो अमारी उद्घोषणा की ही, पर सूरिजी के उपदेश से समुद्र के असंख्य जलचर जीवों को भी वर्षपर्यन्त अभयदान देने का फरमान जारी किया था। सम्राट अकबर के आग्रह पर सूरिजी ने संवत् १६५२ में पंच नदी की साधना कर पाँचों पीरों को वश में किया था।
संवत् १६६७ का अहमदाबाद और १६६८ का चातुर्मास पाटण में किया। इस समय एक ऐसी घटना हई जिससे सूरिजी को वृद्धावस्था में भी सत्वर विहार कर आगरा आना पड़ा। बात यह थी कि एक समय सम्राट अहाँगीर ने जब सिद्धिचन्द्र नामक व्यक्ति को अन्तःपुर में दूषित कार्य करते देखकर, कंपित होकर समग्र जैन साधुओं को कैद करने तथा राज्य सीमा से बाहर करने का हुक्म निकाल दिया था, तब जैनशासन की रक्षा के निमित्त आचार्यश्री ने वृद्धावस्था में भी आगरा पधारकर सम्राट जहाँगीर (जो उनको अपना गुरु मानता था) को समझाकर इस हुक्म को रद्द करवाया।
संवत् १६६६ का चातुर्मास आगरा में किया। इस चातुर्मास में सूरिजी का सम्राट जहाँगीर से अच्छा सम्पर्क रहा और शाही दरबार में भट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित कर 'सवाई युगप्रधान भट्टारक' नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। चातुर्मास के पश्चात् विहार कर मेड़ता होते हुए बिलाड़ा पधारे और संवत १६७० का चातुर्मास वहीं किया। पयुर्षण के पश्चात् सूरिजी के शरीर में व्याधि उत्पन्न हई। इन्होंने अपना अन्तिम समय निकट जानकर अनशन ग्रहण किया और आश्विन बदी दूज के दिन इस नश्वर देह को त्यागकर स्वर्ग की ओर प्रयाण कर गये । दाह संस्कार के समय इनकी मुख-वस्त्रिका नहीं जली । अग्नि-संस्कार के स्थान पर स्तूप बनाकर आपके चरणों की प्रतिष्ठा की गई।
महान प्रभावक होने से आप जैन समाज में चौथे दादाजी के नाम से प्रसिद्ध हए। आपकी चरणपादुका, मूर्तियाँ जैसलमेर, बीकानेर, मुलतान, खंभात, शत्रुजय आदि अनेक स्थानों में प्रतिष्ठित हई। सरत, पाटण, अहमदाबाद, भरोंच, भाइखला आदि गुजरात में अनेक जगह आपकी स्वर्ग-तिथि दादा दूज" कहलाती है और दादाबाड़ियों में मेला भरता है।
सूरिजी के विशाल साधु-साध्वी समुदाय था। उन्होंने ४४ नन्दि में दीक्षा दी थी, जिससे २००० साधुओं के समुदाय का अनुमान किया जा सकता है। इनके स्वयं के ६५ शिष्य थे । प्रशिष्य समय
मह
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