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________________ जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी के अग्रगण्य श्रीमान रामलालजो सा० लूनिया, श्रीरतनचन्दजी सा० संचेती आदि श्रावकों के अत्याग्रह पर अजमेर चातुर्मास के लिए प्रियदर्शनाजी, जयश्रीजी व दिव्यदर्शनाजी को अजमेर के लिए प्रस्थान करवाया। जयपुर चातुर्मास सं० २०३१ जैन कोकिला पूज्याप्रवर्तिनी महोदया के साथ गुरुवर्याश्री को ज्ञानगोष्ठी का अपूर्व लाभ प्राप्त हुआ। प्रातः ६ से १०-३० तक गुरुवर्याजी सर्वसाध्वीमंडल को आवश्यक सूत्र का वाचन कराती थीं और मध्यान्होतर २ से ४ तक तत्वरसिक श्रावक-श्राविका वर्ग आ जाते और जैनकोकिला व गुरुवर्याश्री से अकाट्य समाधान, अपनी जिज्ञासाओं का पाकर हर्षित होते । चातुर्मास कब समाप्त हो गया, ज्ञानगोष्ठी करते-करते, पता ही न चला। चातुर्मास संपूर्ण होने के उपरान्त गुरुवर्याश्री ने जैन कोकिलाजी से विनम्र शब्दों में केशरिया आदि तीर्थों की यात्रा करने की अनुमति मांगी। यद्यपि पू० प्रवर्तिनी महोदया नहीं चाहती थीं कि गुरुवर्याजीश्री उन्हें छोड़कर जायें तथापि यात्रा को प्राधान्यता देते हुए आज्ञा देनी पड़ी। पूज्या प्रवर्तिनी महोदया की निश्रा में ही जयपुर के खरतरगच्छ ने विदाई समारोह का आयोजन किया। संपूर्ण संघ के समक्ष पू० प्रवर्तिनीजी ने गुरुवर्यात्री को 'आगम ज्योति' के विरुद से अलंकृत। किया। विदुषीवर्या श्री चन्द्रप्रभाजी म० व मणिप्रभाजी म० ने संस्कृत और हिन्दी स्वरचित अष्टक बड़े ही मधुर स्वर में समर्पित किये । सर्व मंडल और श्री संघ ने विदाई दी। गुरुवर्याश्री ने वहाँ से मिगसिर बदी में मालपुरा की ओर प्रस्थान किया। काफी दूर तक पू० प्रवर्तिनीजी तथा श्रीसंघ साथ थे। विदाई का समय बड़ा ही कारुणिक बन गया । पू० गुरुवर्याश्री मालपुरा पहुँची । अजमेर चातुर्मास पूर्ण करके प्रियदर्शनाजी आदि तीनों साध्वियां भी मालपुरा पहुँच गईं। ३-४ दिन जप-ध्यान-भक्ति-मौन साधना करते हुए वहीं रुके । वहाँ से प्रस्थान करके केकड़ी, विजयनगर, गुलाबपुरा होते हुए हम लोग प्रसिद्ध विद्वान श्री जिनविजयजी के आश्रम (चंदेरियाग्राम) पहुँचे । आप महान विद्वान, आगमों के अच्छे ज्ञाता तथा जैन संस्कृति की प्राचीनता व ऐतिहासिकता से पूर्णतः परिचित हैं । वे गुरुवर्या के अप्रत्याशित आगमन और मिलन से अति प्रसन्न हुए । उनके आग्रह से १ दिन रुके। ऐतिहासिक चर्चाएँ हुईं । हमने भी उनसे ज्ञातव्य ज्ञात किये। दूसरे दिन विहार करके चित्तौड़ पहुँचे । चित्तौड़गढ़-यह ऐतिहासिक नगरी तो है ही, लौकिक और लोकोत्तर तीर्थस्थल भी है। यह नगरी वीर क्षत्रियों की जननी है तो धर्मवीरों की भी । इतिहास में इसका अमिट स्थान है। ___ याकिनी महत्तरासूनु हरिभद्रसूरि, जो जैन दर्शन के उद्भट विद्वान थे, उनकी जन्मभूमि एवं प्रतिबोध भूमि यही नगरी है। चित्तौड़ के आसपास का क्षेत्र बागड़ कहलाता है। श्रीजिनवल्लभसूरि ने इस क्षेत्र में विचरण कर १८०० हूँबड़ बागड़ी लोगों को जैन दीक्षा देकर श्रावक बनाने का भगीरथ कार्य किया; और भी कई शासन प्रभावना के कार्य किये हैं । (विशेष जानकारी के लिए वल्लभ भारती देखें।) चित्तौड़ दुर्ग पर बने शिखरबद्ध जिनमन्दिरों के दर्शन कर चित्त प्रसन्न हो गया। यहीं विजय स्तम्भ है, जिससे गुरुदेव का भी सम्बन्ध है । भक्त मीरावाई का मन्दिर भी सुन्दर है । रानी पद्मिनी का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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