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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ अपनी बहन के पास रहने लगे थे और किराने का व्यापार करने लगे थे। कुछ ही दिनों में अपनी व्यावहारिक कुशलता के कारण जयपुर के प्रसिद्ध सेठ माणकचन्दजी गोलेच्छा के ये मुनीम नियुक्त हुए। संवत् १६०६ में जयपुर में ही मुनि श्री राजसागरजी और ऋद्धिसागरजी का चातुर्मास हुआ। चातुर्मास के मध्य मुनिजनों के सम्पर्क में रहने के कारण इनका हृदय वैराग्यवासित हो गया। इसी के फलस्वरूप संवत् १६०६ में ही भादवा सुदी पांचम के दिन इन्होंने दीक्षा ग्रहण की, मुनि सुखसागर नाम रखा गया। दीक्षा का सारा महोत्सव सेठ माणकचन्दजी गोलेच्छा ने किया था। राजसागरजी ने इस नव दीक्षित सुखसागर को ऋद्धिसागरजी का शिष्य घोषित किया था। गहन शास्त्र अध्ययन करने के पश्चात साधुजीवन में आई शिथिलता से उद्विग्न होकर संवत् १६१८ में क्रियोद्धार किया। इस समय आपके साथ आपके दो गुरु भाई भी थे, जिनके नाम पद्मसागरजी और गुणवन्तसागरजी थे । क्रियोद्धार के पश्चात् शत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर फलौदी पधारे। इधर साध्वी रूपश्री की शिष्याएँ उद्योतश्री जी, धनश्री जी भी शिथिलाचार का त्याग कर १९२२ में फलौदी आई और संविग्न सुखसागरजी को अपना गुरु मानकर उनकी आज्ञानुवर्तिनी हो गईं। संवत् १९२४ में लक्ष्मीश्रीजी की दीक्षा हुई, सम्वत् १६२५ में भगवानदास नामक भव्य पुरुष ने इनके पास दीक्षा ग्रहण की और यही भगवानसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए। ___ कहा जाता है कि एक बार आपने स्वप्न में देखा कि 'पल्लवित बगीचे में कुछ बछड़ों के साथ गायों का झुण्ड वूम रहा है' इस स्वप्न के आधार पर इन्होंने भविष्यवाणी की थी कि समुदाय का विस्तार अवश्य होगा किन्तु उसमें साधु कम और साध्वियाँ अधिक होंगी। उनकी यह भविष्यवाणी पूर्णतः सफल हुई । आप आगम साहित्य के अच्छे विद्वान भी थे। जीवाजीव राशि प्रकाश, बासठ मार्गणा यन्त्र एवं अष्टक आदि कई कृतियाँ आपकी प्राप्त हैं। सम्वत् १९४२ माघ बदी ४ (२३ जनवरी १८८६) के दिन प्रातःकाल फलौदी में आपका स्वर्गवास हुआ। वर्तमान में आपने जो सुविहित मार्ग का पुनरुद्धार किया था, इसी कारण इनका समुदाय परम्परा सुखसागर जी म. के समुदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो आज भी प्रसिद्धि के शिखर पर है। (८) गणाधीश भगवानसागर जी ये रोहिणी गाँव के निवासी थे और जसाजी जाट के पुत्र थे। सुखसागरजी के उपदेश से प्रतिबोध पाकर आपने सम्वत् १९२५ में दीक्षा ग्रहण की थी। सुखसागरजी का स्वर्गवास हो जाने पर आप समुदाय के गणाधीश बने । अन्तिम अवस्था में आपने अपने भतीजे हरीसिंह के लिए छगनसागरजी को निर्देश दिया था कि इसको योग्य अवस्था में दीक्षा प्रदान करना । सम्वत् १६५७ ज्येष्ठ कृष्णा चौदस को आपका स्वर्गवास हो गया। इनके सात शिष्य हुए, जिनमें से प्रमुख तीन थे-सुमतिसागरजी, त्रैलोक्य सागरजी और हरिसागरजी। इनके कार्यकाल में सात साधु और ४१ साध्वियाँ हुईं। (६) तपस्वी छगनसागर जी भगवानसागर जी के पश्चात् इस समुदाय के अधिपति छगनसागर जी हुए । इनका जन्म १८६६ में फलौदी में हुआ था। आपके पिता का नाम था सागरमलजी गोलेच्छा और माता का नाम था चन्दन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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