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________________ ४६ खरतरगच्छ को संविग्न साधु परम्परा का परिचय : मंजुल विनयसागर जन - आप अपने समय के परम गीतार्थ एवं चिन्तनशील धुरन्धर विद्वान थे । आपके द्वारा निर्मित संस्कृत व भाषा के स्वतन्त्र ग्रन्थ, प्रश्नोत्तर ग्रन्थ एवं टीका ग्रन्थ प्राप्त होते हैं जिनमें से मुख्य-मुख्य हैंतर्क संग्रह फक्किका, गौतमीय काव्यवृत्ति, खरतरगच्छ पट्टावली, आत्मप्रबोध, सूक्तिरत्नावली सटीक, प्रश्नोत्तर सार्ध शतक, साधु एवं श्रावक विधि प्रकाश, यशोधर चरित्र एवं श्रीपाल चरित्र टीका तथा चातुर्मासिक, अष्टाह्निका आदि पाँच व्याख्यान । आपके प्रमुख शिष्य थे--कल्याणविजय, विवेकविजय, विद्यानन्दन, और धर्मविशाल । (४) धर्म विशालजो (धर्मानन्द) इनकी दीक्षा संवत् १८७० ज्येष्ठ बदी छठ को जयपुर में हुई । इनका दीक्षा नाम धर्मविशाल रखा गया किन्तु ये धर्मानन्द के नाम से ही प्रसिद्ध रहे । आपने संवत् १८७४ आषाढ शुक्ल छठ को बीकानेर रेलदादाजी में क्षमाकल्याण उपाध्याय के चरण प्रतिष्ठित किये। इन्हीं के उपदेश से भाण्डासर मन्दिर के अहाते में सीमंधर स्वामी के जिनालय का निर्माण हुआ। संवत् १८८६ में माघ सुदी पांचम को बीकानेर में राजाराम को दीक्षित किया, रत्नराज नाम रखा । सम्भवतः यही भविष्य में राजसागरजी के नाम से प्रसिद्ध हुए। संवत् १६१२ में सुगुण को शिष्य बनाया और दीक्षा ना. सुमतिमंडन रखा। यह अच्छे विद्वान और कवि थे । इन्होंने पंचज्ञान, पंचपरमेष्ठी आदि दसों पूजाएँ बनाकर पूजा साहित्य की प्रशंसनीय अभिवद्धि की थी। बीकानेर का स्थान आज भी सुगनजी के उपाश्रय के नाम से प्रसिद्ध है। ., इन्हीं के प्रयत्न से शिववाडी में मन्दिर की स्थापना हुई थी । संवत् १६२८ ज्येष्ठ बदी दूज को धर्मानन्दजी के चरण रेलदादाजी में सुमतिमण्डन द्वारा प्रतिष्ठित प्राप्त हैं। अतः इसके आसपास ही धर्मानन्दजी का स्वर्गवास हुआ होगा । अन्तिम व्यवस्था में धर्मानन्दजी के आचार-व्यवहार में कुछ शिथिलता आ गई थी। (५) राजसागरजी इनका जन्मनाम राजाराम था। धर्मानन्दजी के पास १८८६ माघ सुदी पांचम को दीक्षा ग्रहण की और राजसागर नाम प्राप्त किया। ये प्रौढ़ विद्वान् थे। इन्होंने अनेक मानवों को मांस-मदिरा का त्याग करवा कर दुर्व्यसनों से मुक्त कराया था और शुद्ध धर्म प्रदान किया था। इनके सम्बन्ध में विशेष इतिवृत्त प्राप्त नहीं है। (६) ऋद्धिसागरजी इनका भी कोई परिचय प्राप्त नहीं है। ये उच्चकोटि के विद्वान थे, साथ ही चमत्कारी मन्त्रवादी भी । वृद्ध जनों से ज्ञात होता है कि दैवीय मन्त्र-शक्ति से इन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि वे इच्छानुसार आकाश गमन कर सकते थे। आबू तीर्थ की अंग्रेजों द्वारा आशातना देखकर इन्होंने विरोध किया था। राजकीय कार्यवाही में समय-समय पर स्वयं उपस्थित होते थे। और अन्त में तीर्थरक्षा हेत गवर्नमेन्ट से ११ नियम प्रवृत्त करवाकर अपने कार्य में सफल हुए थे। त्रिस्तुतिक प्रसिद्ध आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि और तपागच्छ के प्रौढ़ आचार्य झवेरसागरजी का जब चतुर्थ स्तुति के सम्बन्ध में शास्त्रार्थ हुआ तो उस शास्त्रार्थ के निर्णायकों में वाराणसी के दिङ मण्डलाचार्य बालचन्द्राचार्य और ऋद्धिसागरजी ही थे । संवत् १६५२ में आपका स्वर्गवास हुआ। (७) गणाधीश सुखसागरजी इनका जन्म सरसा में १८७६ में हुआ था। दूगड़ गोत्रीय मनसुखलालजी इनके पिता थे और माता का नाम था जेतीबाई । युवावस्था में माता-पिता का वियोग हो जाने पर ये जयपुर में आकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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