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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
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नन्दी सूची के अनुसार इनकी दीक्षा १७८८ माघ बदी तेरस को सिणधरी में हुई थी । संवत् १८०१ में ये श्री जिनभक्तिसूरिजी के साथ राधनपुर में थे। जिनभक्तिसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् १८०४ से ये श्री निलाभसूरि के साथ भुजनगर, गूढा और जैसलमेर में रहे । संवत् १८०८ कार्तिक बदी तेरस को बीकानेर में आपका स्वर्गवास हुआ । संवत् १८५२ में प्रतिष्ठित आपकी चरण पादुकाएँ जैसलमेर में है ।
(२) वाचक अमृतधर्म गणि
आपका कच्छ निवासी ओस वंशीय वृद्ध शाखा में जन्म हुआ था । आपका जन्म नाम अर्जुन था । संवत् १८०४ फागुन सुदी एकम को भुज नगर में श्री जिनलाभसूरि के कर कमलों से दीक्षित होकर श्री प्रीति सागर गणि के शिष्य बने थे । अनेक तीर्थों की यात्राएँ की थीं । सिद्धान्तों के योगोदवह्न किये थे। संवत् १८२७ में जिनलाभसूरि ने इनको वाचनाचार्य पद दिया था । संवेग रंग से आपकी आत्मा ओत-प्रोत होने से संवत् १८३८ माघ सुदी पांचम को सर्वथा परिग्रह का त्याग कर दिया था । १८४० तक तत्कालीन आचार्य जिनचन्द्रसूरि जी के साथ रहे । संवत् १८४३ में पूर्व देश की ओर विचरण किया, तीर्थयात्राएँ कीं और धर्मप्रचार किया। आपके उपदेश से कई नवीन जिनालय बने, कई प्रतिष्ठा आदि कार्य सम्पन्न हुए । संवत् १८४८ में पटना में स्थूलभद्रजी की देहरी की प्रतिष्ठा करवाई। संवत् १८५० का चातुर्मास बीकानेर में किया और १८५१ का चातुर्मास जैसलमेर करने के पश्चात् माघ सुदी आठम को जैसलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ। वहाँ आपके चरण प्रतिष्ठित हैं ।
(३) उपाध्याय क्षमाकल्याण
बीकानेर के निकटवर्ती केसरदेशर गाँव के मालू गोत्र में संवत् १९८०१ में इनका जन्म हुआ था । इनका जन्म नाम खुशालचन्द था । संवत् १८१२ से अमृतधर्म गणि के पास रहकर अध्ययन करने लगे और संवत् १८१६ मैं आषाढ़ बीज 'को जैसलमेर में श्री जिनलाभसूरि जी के करकमलों से दीक्षित होकर अमृतधर्म गणि के शिष्य बने । दीक्षा नाम क्षमाकल्याण रखा गया । इन्होंने विद्याध्ययन उपाध्याय राजसोम और उपाध्याय रामविजय ( रूपचन्द ) के सान्निध्य में रहकर किया था। इनका विचरण श्री जिनलाभसूरि व श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ ही अधिकांशतः हुआ । संवत् १८२४ में बीकानेर, १८२६ से १८३३ तक गुजरात, काठियावाड़ और १८३४ में आबू व मारवाड़ के तीर्थों की यात्रा करते हुए जैसलमेर आये तथा १८४० तक वहीं रहे । ९८४३ में बंगाल और बालूचर में चातुर्मास किया । वहाँ भगवती सूत्र आगम की वाचना की । १८४८ तक पूर्व देश में विचरण कर धर्म प्रचार करते रहे ।
संवत् १८५५ में जिनचन्द्रसूरि जी ने आपको वाचक पद से और श्री जिनहर्षसूरि ने उपाध्याय पद से अलंकृत किया । गच्छ में वयोवृद्ध एवं गीतार्थ होने के कारण यह महोपाध्याय कहलाये ।
संवत् १८३८ में आपने क्रियोद्धार किया था और साधु परम्परा के लिये कई विशिष्ट नियम निर्धारित किये थे । संवत् १८७३ पौष बदी चौदस मंगलवार को बीकानेर में आपका स्वर्गवास हुआ । बीकानेर की रेलदादाजी में आपकी चरण पादुका व सीमंधर जिनालय तथा सुगनजी के उपाश्रय में मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं ।
आपके कई चमत्कार भी प्रसिद्ध हैं । कहा जाता है कि जोधपुर के महाराजा ने जब जैसलमेर पर आक्रमण किया था तथा जैसलमेर के महारावल की प्रार्थना पर क्षमाकल्याणजी ने सर्वतोभद्र यंत्र लिखकर दिया था । इस यन्त्र के प्रताप से ही महारावल विजयी होकर आये थे । जैसलमेर के महारावल आपके परम भक्त थे ।
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