SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ मूर्ति आदि के अवलम्बन बिना ध्यानसिद्धि व निरालम्बध्यानश्रेणि प्राप्त करना असंभव है । इतिहास प्रमाण व शास्त्रप्रमाण से मूर्ति के बहाने मूत्तिमान की पूजा है और उसके प्रति श्रद्धान्वित हुए विना सम्यक् दर्शन और मोक्षप्राप्ति तीन काल में भी संभव नहीं। भगवान् के समवशरण में तीनों दिशाओं में भगवान् के बिम्ब होते थे, अर्थात् नौ पर्षदाएँ तो उन्हीं के दर्शन से सम्यक्त्व प्राप्त करते थे, केवल पूर्वाभिमुख भगवान् के साक्षात् दर्शन तीन पर्षदाओं को होते थे । श्रीदेवचन्दजी महाराज ने लिखा है कि मुनि अपने स्थान से जिनवन्दन, ग्रामान्तर विहार, आहार हेतु गोचरी और स्थंडिल भूमि-इन चार कारणों से ही उठते हैं। महानिशीथ सूत्रानुसार यदि मुनि जिनवन्दनार्थ, जहाँ जिनालय हो न जाय तो उसे पाँच उपवास का दण्ड आता है । मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी मुस्लिम भी तीर्थयात्रा (हज) को महत्व देते हैं। सम्राट मुहम्मद तुगलक सुप्रसिद्ध खरतरगच्छाचार्य श्रीजिनप्रभसूरि से इतना प्रभावित था कि उसने भगवान महावीर की प्रतिमा को अपने उच्च अधिकारियों के कन्धे पर चढ़ाकर आदर सहित बुलाया एवं दिल्ली में जिनालय, उपाश्रय और जैन बस्ती (सुलतान सराय, भट्टारक सराय) आदि को राज्य की ओर से निर्माण कराया। इतना ही नहीं सम्राट रवयं सूरिजी के साथ शत्रुजय यात्रार्थ गया। जैन अमूर्तिपूजक वीतराग देव के मन्दिरों को अमान्य कर हृदय की माँग को कालीजी, भैरोंजी, रामदेवजी आदि ही नहीं पीरों तक को मानकर पूर्ण करता है। जबकि अनादिकाल से मान्य जिनप्रतिमा को पाँच सौ वर्ष पूर्व तक किसी ने अमान्य नहीं किया। कई लोग बड़े आडम्बर का कारण कहकर बहाना बनाते हैं पर सचमुच में देखा जाय तो आज का आडम्बर उस चैत्यवासी युग के अविधि मार्ग से बढ़कर कुछ भी नहीं । मन्दिरों में वेश्यानृत्य, पानचर्वण, रात्रि में अनुष्ठान, गद्दे-तकिये लगाना मठधारी के लिए सामान्य था । जिसका विरोध हरिभद्रसूरिजी से लगाकर श्री वर्द्ध मानसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिपूरि आदि आचार्यों ने विधि मार्ग प्रचारित कर, चैत्यवासियों के विरोध द्वारा जैनधर्म का बौद्धों की भाँति, तिरोभाव होने से बचा लिया। इन महान् आचार्यों ने विधिचैत्यों की प्रतिष्ठा की, अविधिवजित आज्ञा को शिलोत्कीणित किया और त्याग-वैराग्य भाव वाले चैत्यवासियों को उपसम्पदा देकर सुविहित मार्ग में प्रविष्ट कराया। जैन तीर्थों पर चैत्यवासियों का प्रभाव अल्प ही था फिर भी दुष्प्रभाव न बढ़े इसलिए विधिचैत्य और खरतरवसही निर्माण का कार्य यथावश्यक चालू रहा । अणहिलपुर पाटण में दुर्लभराज की सभा में शास्त्रार्थ कर चैत्यवासियों को पराभूत करने से पूर्व तो सुविहित साधुओं का चंचुप्रवेश भी गुजरातादि में नहीं था । स्वयं वर्द्धमानसूरि, जिनेश्ररसूरि आदि १८ ठाणों को ठहरने तक का स्थान चैत्यवासियों के आतंक के कारण नहीं मिला था। उनके अधिकृत स्थानों में दर्शन-पूजन-भक्तिभाव में विघ्न-बाधा की उपस्थिति के कारण स्थान-स्थान पर विधिचैत्यों ने प्रतिष्ठित होकर तीर्थ का रूप धारण किया। सम्यकत्व सप्तति टीकादि के अनुसार आबूतीर्थ के निर्माता विमलमन्त्री और तिलकमञ्जरी के कर्ता कवि धनपाल का सम्बन्ध वर्द्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि से था। आबू की सुप्रसिद्ध कलापूर्ण विमलवसही की प्रतिष्ठा सं० १०८८ में वर्द्धमानसूरि आदि आचार्यों ने करवायी थी। जिसका उल्लेख प्रबन्धों व पट्टावलियों में संप्राप्त है। वृद्धाचार्य प्रबन्धावली के अनुसार आबू की प्राचीन प्रतिमा श्रीवर्द्ध मानसूरिजी द्वारा ही प्रगट हुई थी। "वद्ध माणसूरिहि तित्थं पयडियं" अर्थात् बर्द्ध मानसूरि ने आबूतीर्थ को प्रगट किया। खण्ड ३/११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy