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________________ श्री भंवरलाल नाहटा खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय आर्यावर्त में तो तीर्थ शब्द अत्यन्त श्रद्धास्पद है ही, समस्त विश्व में भी महत्वपूर्ण धार्मिक स्थानों या महापुरुषों से सम्बन्धित अधिस्थानों को सभी धर्मों में आदरणीय माना जाता है। 'तीर्यते अनेन यत्तत्तीर्थः' अर्थात् जिसके द्वारा तिरा जाय उसे तीर्थ कहते हैं। यह शब्द जैन परम्परा में प्रवचन या चतविध संघ का द्योतक होने से उसके कर्ता तीर्थंकर कहलाते हैं । यों तीर्थ शब्द तविषयक पारगामित्व के कारण ही व्याकरणतीर्थ, न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ आदि में प्रयुक्त होता है एवं उसी प्रकार गंगा, त्रिवेणी माग आदि तीर्थ-तिरने के घाट भी लोक प्रसिद्ध हैं । यहाँ और अधिक स्पष्टीकरण के लिए 'तीर्यते संसार सागरो येन तत् तीर्थम्' परिभाषा द्रष्टव्य है । तीथे दो प्रकार के होते हैं-एक जंगम और दूसरा स्थावर । जंगमतीर्थ हैं आत्मस्थ महापुरुष आचार्य, उपाध्याय और साधुजन एवं स्थावर तीर्थ हैं वे स्थान, जहाँ पर तीर्थकर भगवंतों का च्यवन, जन्म, दीक्षा एवं केवलज्ञान और निर्वाण हुआ है । आचारांग सूत्र, आवश्यक निर्यक्ति और भाष्यादि प्राचीनतम आगमों में इन तीर्थों का उल्लेख पाया जाता है, जो कल्याणक भूमि अथवा भगवान के विचरण द्वारा पवित्रित है । आचारांगनियुक्ति की गाथा, ३२६ से ३३२ तक कल्याणकभमियों, देवलोक के विमान, असुरादि के भवन, मेरुपर्वत व नन्दीश्वर के चैत्यों व भूमिस्थ व्यन्तर नगरों में वर्तमान जिनप्रतिमाओं तथा अष्टापद, उज्जयन्त, गजानपद, धर्मचक्र, पार्श्वनाथतीर्थ, रथावर्त और चमरोत्पात तीर्थों को नमस्कार किया गया है । . इन गाथाओं में नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी चतुर्दश पूर्वधर श्रु तकेवली द्वारा शाश्वत चैत्यों के साथ अशाश्वत सात तीर्थों का वन्दन किया है । अतः शास्त्र एवं इतिहास प्रमाण से तीर्थों का अस्तित्व एवं उनकी उपादेयता निर्विवाद अनादिकालीन सिद्ध हैं। चैत्यवंदन कूलक की गाथा में १ मंगल, २ निश्रागत, ३ अनिश्रागत, ४ भक्तिचैत्य और ५ शाश्वत चैत्यों का प्रकार जिनेश्वर भगवान् द्वारा उपदिष्ट बतलाया है। मंगलचैत्य मन्दिरों व सदगृहस्थों के द्वार पर, निश्नाकृत व्यक्तिगत अधिकार वाले गृहचैत्यालय, अनिश्राकृत सार्वजनिक जिनालय, भक्तिचैत्य पाँच कल्याणक व तपोभूमि पर, शाश्वत चैत्य नंदीश्वरद्वीप, मेरुपर्वतादि तथा देवविमान व भवनों के अकृत्रिम चैत्य हैं । शाश्वतचैत्यों में स्वर्ग के देव, जंघाचरण विद्याचरणादि मुनि व लब्धिधारी और उन के सहाय्य प्राप्त जन दर्शन-पूजन करते हैं जिससे अनादिकालीन जिनप्रतिमा का दर्शन-पूजन स्वतःसिद्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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