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________________ खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भँवरलाल नाहटा स्तंभन पार्श्वनाथ भगवान् की सातिशय प्रतिमा नवांगीवृत्तिकारक अभयदेवसूरिजी द्वारा जयतिहुअण स्तोत्र की रचना / स्तवना से प्रगट हुई और प्रभु के न्हवण जल से आचार्यश्री का रोग उपशान्त हो गया । आज यह तीर्थ खम्भात नगर में सप्रभावी है । उनके पट्टधर श्रीजिनवल्लभसूरि ने चित्तौड़, नागौर आदि अनेक नगरों में विधिचैत्यों की स्थापना करवायी और चित्रकूटीय प्रशस्ति उत्कीर्ण करवाकर विधिचैत्यों के नियम लिखवाये । इस अष्टसप्तति का विशद परिचय महोपाध्याय विनयसागर जी द्वारा लिखित श्रीजिनदत्तसूरि सेवा संघ की स्मारिका में प्रकाशित किया गया है । ८२ परम पितामह युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी ने अजमेर, कन्यानयन, विक्रमपुर, नरहड़ आदि अनेक स्थानों में विधिचैत्य स्थापित करवाये। जांगलू तथा अजयपुर में एक ही दिन में प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ हैं जिनमें विधिचैत्य का नाम है । यह अवश्य ही जिनदत्तसूरि द्वारा प्रतिष्ठित हैं । उनके पट्टधर मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने भी कई प्रतिष्ठाएँ कराई थीं । वादि विजेता श्रीजिनपतिसूरिजी ने कन्नाणा में अपने चाचा साह मानदेव कारित जिस महाar प्रभु की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की वह भी अपने अतिशय के कारण तीर्थरूप में मान्य हुई और श्रीजिनप्रभसूरिजी को मुहम्मद तुगलक बादशाह ने भेंट की और मन्दिर निर्माण कराके प्रतिष्ठित की, वह मन्दिर सतरहवीं शती तक विद्यमान होने के प्रमाण मिलते हैं । विविध तीर्थंकल्प के दो कल्पों में इनके चमत्कारों का विशद वर्णन है । युग प्रधानचार्यगुर्वावली के अनुसार आचार्य श्रीजिनपतिसूरिजी महाराज अजमेर से अनेक नगरों के विशाल संघ के साथ तीर्थयात्रा हेतु निकले और चन्द्रावती आदि होते हुए आशापल्ली पधारे । वहाँ सेठ क्षेमंधर के पुत्र प्रद्य मनाचार्य से शास्त्रार्थ का उपक्रम चला और इसी बीच स्तंभन, गिरनारादि यात्रा करके आये । इस यात्रा का विस्तृत वर्णन नहीं मिलता। यह प्राप्त प्रमाणानुसार सं० १२४४ की संघ यात्रा थी । 0 सं० १३२६ में स्वर्णगिरि से भुवनपाल के पुत्र अभयचंद्र तथा देदा आदि के संघ सहित श्रीजिनेश्वरसूरि, जिनरत्नसूरि, चन्द्रतिलकोपाध्याय आदि १३ साधु और १३ ठाणा लक्ष्मीनिधि महत्तरादि साध्वियों के साथ पधारे। शत्रुञ्जय में बीस हजार और उज्जयंत में १७ हजार भण्डार में आमदनी हुई। इन दिनों स्वर्णगिरितीर्थ बड़ी उन्नति पर था । वहाँ जिनालयों की प्रतिष्ठा, दीक्षादि अनेक उत्सव हुए। बीजापुर, पालनपुर आदि में सर्वत्र प्रतिष्ठाऍ हुई । श्रीजिनप्रबोधसूरिजी ने तारंगा, स्तंभन तीर्थ, भरौंच आदि की संघ सहयात्रा की । सं० १३३४ में भीलड़ियाजी में दीक्षा और प्रतिष्ठा महोत्सव हुए । चित्तौड़ में भी प्रतिष्ठा स्वर्णगिरि में भी हुई । सं० १३३७ में बीजापुर के वासुपूज्य विधिचैत्य में अनेक दीक्षा प्रतिष्ठादि उत्सव हुए जिसमें वहाँ तीस हजार की आमदनी हुई। गढसिवाणादि के बाद सं० १३४० में जैसलमेर, विक्रमपुर आदि तीर्थों में प्रभावना कर जावालिपुर में महती धर्मप्रभावना करके श्रीजिनप्रबोधसूरि सं० १३४१ में स्वर्गवासी हुए । कलिकाल केवली श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से सं० १३५२ में वा० राजशेखर सुबुद्धिराज, तिलक, पुण्यकीर्ति आदि गणिवरों ने बड़गाँव में विहार किया । वहाँ के श्रावकों के साथ कौशाम्बी, वाराणसी, काकन्दी, राजगृह, पावापुरी नालंदा, क्षत्रियकुण्ड, अयोध्या. रत्नपुर यात्रा करते हुए हस्तिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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