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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन भासों को पलने दिया, परन्तु सिद्धान्त रूप से वेदान्त को पुनः आत्म-केन्द्रित बनाने की पूरी कोशिश की। लेकिन बाद के कई सन्तों ने गीता को केन्द्र बनाकर भक्ति मार्ग को इस प्रकार बल दिया कि कर्म और ज्ञान का महत्व गौण होने लगा। हमारा सामाजिक और राजनैतिक जीवन भी ईश्वर के भरोसे चलने लगा । हमारी भावनाएँ, शुभ और अशुभ भक्ति-केन्द्रित रहीं जिसके दुष्परिणाम साम्प्रदायिक तनाव के रूप में उभरने लगे । ईश्वर-केन्द्रित दर्शनों को अपनाने वाले सेमिटिक धर्मों ने ईश्वर के नाम पर खूब लड़ाईझगड़े किये । यहूदियों ने यह वा के नाम पर, ईसाइयों ने ईश्वर के नाम पर और मुसलमानों ने अल्लाह के नाम पर "धर्मयुद्ध" किये और खूब खून बहाया । इन सवका यही विश्वास रहा है कि ईश्वर केवल हमारे साथ है, अन्य धर्मों के लोगों के साथ नहीं है । वह उनको नरक में भेज देगा। ___ भारतीय धर्म और दर्शन जब तक आत्म-केन्द्रित रहे, यहाँ का सामाजिक और राजनैतिक जीवन मतान्धता से विषाक्त नहीं हुआ था। परन्तु इस्लाम के आने के बाद स्थिति बदलनी शुरू हुई। गुलामी के लम्बे युग में ईश्वर-भक्ति ने उन्हें एक अजीब तरह की मस्ती प्रदान की । शंकराचार्थ के बाद वेदान्त पूर्णरूप से ईश्वर-केन्द्रित बन गया। ईश्वर-केन्द्रित बनने पर आत्मज्ञान का अवमूल्यन शुरू हुआ । भक्ति के नाम पर अज्ञान और मतान्धता बढ़ते गये । रामानुज, मध्व और वेदान्त के अन्य आचार्यों ने शंकराचार्य के विरुद्ध ही नहीं बल्कि आपस में भी अशोभनीय भाषा में विवाद शुरू कर दिये । ईश्वर के नाम पर धार्मिक वैमनस्य बढ़ने लगा। जब अंग्रेज भारत छोड़ने को थे, तब मुसलमानों ने पाकिस्तान के लिये जिहाद-सा छेड़ दिया। उनकी सफलता से इस धारणा को बल मिला कि बड़े पैमाने पर हिंसा के द्वारा राजनैतिक लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं। इससे पंजाब के मतान्ध लोगों को प्रेरणा मिली । आज पंजाब में रोज निर्दोष लोगों की हत्याएँ हो रही हैं । वे सब ईश्वर के नाम पर ही हो रही हैं । हम यह नहीं कह सकते कि आतंकबादियों में भक्ति नहीं है । वह आवश्यकता से अधिक है। परन्तु आत्म-केन्द्रित दर्शन के अभाव में वह अज्ञान में लिप्त है। आज धार्मिक क्षेत्र में जिस तरह का वातावरण बना हुआ है, वह भक्ति मार्ग के अनावश्यक महत्व के कारण हुआ है । भक्ति के साथ ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, वरना उसके परिणाम बहुत खतरनाक हो सकते हैं, व्यक्ति के लिये ही नहीं बल्कि समाज और देश के लिये भी । सिद्धान्त और व्यवहार में केवल जैन दर्शन ही आत्मकेन्द्रित रहा है । जैन समाज में जहाँ कहीं भी बुराई दिखाई दे रही है उसका कारण भक्ति की लहर का कुप्रभाव है । कई क्षेत्रों में जैन लोग [वैष्णवों की भक्ति की नकल करने में लगे हैं । परिणामतः जैन समाज में साम्प्रदायिकता की बीमारी कई वर्गों में फैल गई है। पुस्तक पूजा, मूर्ति पूजा, व्यक्ति पूजा केवल साधन हैं । वे अपने आप में साध्य नहीं हैं । वे यदि आत्म-ज्ञान जाग्रत नहीं कर सकते तो अज्ञान से दूषित भक्ति ही पनपायेंगे । जो लोग ज्ञानी हैं और मतों से परे हैं, वे ध्यान के महत्व पर अधिक बल देते हैं। ध्यान व्यक्ति को तुच्छ भावनाओं से परे ले जाता है। यह ध्यान मन्दिर में मूर्ति के सामने किया जा सकता है और स्थानक, आश्रम या गुफाओं के एकान्त में भी किया जा सकता है । इस विषय पर जो विवाद हुए हैं, वे आत्मज्ञान की कमी के सूचक हैं । यदि जैन दृष्टिकोण आत्मकेन्द्रित रहता है तो भक्ति के साथ जो अज्ञान घुस गया है, उससे वह मुक्त हो सकता है । जैन-जगत को नेतृत्व देने वालों के लिए यह अति आवश्यक है कि वे अपने आत्म-केन्द्रित दर्शन की शुद्धता को बनाये रखें। खण्ड ४/११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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